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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘अभी तो कॉलेज में पढ़ रही है। पढ़ाई तो उसकी दो-तीन मास में पूर्ण हो जायेगी। तदनन्तर वह परिवार का कार्य करेगी। साधारण साहित्य पढ़ेगी और सैर-सपाटे करेगी।’’

‘‘मैं अभी यही सोच रही थी कि दोनों में से कौन-सा जीवन अधिक अच्छा है। किन्तु किसी निश्चय पर नहीं पहुंच सकी। मुझे दोनों में ही एक समान लाभ और हानि प्रतीत होती है।’’

‘‘विवाह के उपरान्त मैं भी कभी यह सहन नहीं कर सकता कि मेरी पत्नी किसी ऑफिसर के सम्मुख खड़ी हो उसकी डांट-डपट खाती हुई सर! सर! कहती फिरे।’’

‘‘आप तो बहुत अधिक वेतन पाने वाले ऑफिसर बनेंगे। इससे आपकी पत्नी को तो दूसरे स्थान पर नौकरी करनी ठीक भी नहीं। यहां भी बहुत ऊंची पदवी पर अधिष्ठित पतियों की पत्नियां नौकरी नहीं करतीं। परन्तु साधारण आय वाले पुरुषों की पत्नियां को नौकरी करनी ही पड़ती है और अविवाहित लड़कियां तो अपना समय व्यतीत करने के लिए नौकरी किया करती हैं।’’

‘‘वैसे तो हमारे देश में भी अब ऐसा होता जा रहा है। फिर भी कोई भी पति यह बात प्रसन्नता से स्वीकार नहीं करता।’’

‘‘हम तो इसे समाज की उन्नत अवस्था मानते हैं।’’

‘‘आज से कुछ दिन पूर्व तक मैं भी यही बात मानता था। परन्तु कल एक लड़की शराब की बोतल लेकर मेरे कमरे में घुस आई और मेरे बिस्तर पर सोने का हठ करने लगी। इससे मुझे अपने विचारों का मिथ्यात्व अनुभव होने लगा है। मैं कह नहीं सकता कि यह उन्नति है अथवा अवनति।’’

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