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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘हां, मैं बता रहा था कि हम जब इस देश में चोरों को दस-बीस डालर की चोरी करते सुनते हैं तो देश को निर्धनता की ओर गतिमान समझते हैं। आजकल के चोर किसी की जेब कतर लें और उसमें से सौ डालर भी निकले तो उन्हें सड़क के किनारे फेंककर अपनी राह चलते हैं। इतने कम धन की चोरी करना वे अपना अपमान समझते है।’’

मदन हंस पड़ा। उसने कहा, ‘‘पापा! यदि उन्नति का यही मापदण्ड है तो इस दृष्टि से तो भारत भी धनी हो रहा है। दिल्ली में तीस-चालीस हजार की चोरी से छोटी चोरी को तो चोरी ही नहीं माना जाता। छोटी चोरी की न तो कोई रिपोर्ट ही लिखाता है और न चोर ही इससे स्वयं को सम्मानित समझते हैं।’’

‘‘तब तो ठीक है। मैं भी समाचार पत्रों में पढ़ता था कि भारत धनी हो रहा है। मुझे विश्वास नहीं होता था। अब तुम्हारे कहने से समझ गया हूं।’’

‘‘परन्तु पापा!’’ मदन ने डॉक्टर द्वारा बताये गये मापदण्ड पर अपना अविश्वास व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘जो अपनी ईमानदारी का आय से जीवन निर्वाह करना कठिन पा रहे हैं, ऐसे निर्धनों की संख्या वहां निरंतर वृद्धि कर रही है।’’

‘‘यह तो कुछ भी नहीं। समय के फेर से वे भी समझ जायेंगे कि ईमानदारी जीवन के लिए है न कि मरने के लिए। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर जीवन चलने योग्य बेईमानी को ईमानदारी ही मानना होगा। यहां भी यही हो रहा है।

‘‘तुम देखोगे यहां प्रत्येक वस्तु उधार और किश्तों पर मिल जाती है। इसके लिए किसी जमानती की भी आवश्यकता नहीं रहती। केवल उधार लेने वाले के हस्ताक्षर पर्याप्त मान लिये जाते हैं। यहां प्रतिमास बाबू लोग किसी-न-किसी अथवा अनेक दुकानदारों के सहस्त्रों के डालर हजम कर कहीं लापता हो जाते हैं।’’

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