उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘तब तो दुकानदारों के दिवाले भी बहुत निकलते होगें?’’
‘‘कदापि नहीं। वे सदा अपनी वस्तुओ के मूल्य पर दस प्रतिशत ऐसे लापता होने वाले ग्राहकों के नाम का बढ़ा लेते हैं।’’
‘‘यह तो बेईमानी है। ईमानदार ग्राहक बेइमान का बोझ ढोता है।’’
‘‘बिल्कुल नहीं। यह तो हम ग्राहक बिरादरी वाले अपने भाग्यहीन साथियों के नाम चन्दा समझकर देते हैं। यह भी खुशहाली के लक्षण हैं।
‘‘पापा! यह तो बहुत ही विचित्र बात हैं।’’
‘‘ये प्रगतिशील समाज के लक्षण हैं।’’
प्रगतिशीलता की यह नवीन व्याख्या सुनकर मदन को हंसी आ गई। डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए उसके मुख पर देखकर पूछा, ‘‘क्या बात है? कुछ परेशान से दीखते हो?’’
‘‘पापा! मुझे अमेरिका की भूमि पर पग रखे अभी पचास-बावन घण्टे ही हुए हैं किन्तु इस अल्प अवधि में ही मुझे अनेक नवीन बातों का ज्ञान हो गया है।’’
‘‘इसका अभिप्राय मैं यह समझता हूं कि तुम यहां पर आंखे खोल-कर आये हो। अनेक हिन्दुस्तानी यहां आंखें मूंदकर आते हैं और यहां की विशेषता देखे बिना ही धन का अपव्यय कर वापस चले जाते हैं।’’
मिसेज साहनी ने पूछा, ‘‘कहां ठहरे हो मदन?’’
‘‘अभी तो मिनर्वा होटल में हूं। वहां से यूनिवर्सिटी होटल में चले जाने का विचार कर रहा हूं।’’
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