उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
दाननाथ ने एक क्षण तक विचार में डूबे रहने के बाद पूछा–बाबू अमृतराय का स्वभाव तो ऐसा नहीं है। हां, संभव है शोहदों की शरारत हो।
‘भाई साहब, आदमी के भीतर क्या है, इसे ब्रह्मा भी नहीं जान सकते; हमारी-आपकी हस्ती ही क्या है। साधुओं के भेष में बहुधा दुष्ट....।'
सहसा लाला बदरीप्रसाद ने कमरे में कदम रखते हुए कहा–जैसे तुम खुद हो। शर्म नहीं आती, बोलने को मरते हो। तुम्हें तो मुंह में कालिख पोतकर डूब मरना चाहिए था। मगर तुम जैसे पापियों में इतना आत्माभिमान कहां तुमने सच कहा कि बहुधा साधुओं के भेष में दुष्ट छिपे होते हैं। जिनकी गोद में खेलकर तुम पले उन्हें भी तुमने उल्लू बना दिया। अगर मुझे मालूम होता कि तुम इतने भ्रष्ट-चरित्र हो, तो मैंने तुम्हें विष दे दिया होता।
मुझे तुम्हारी सच्चरित्रता पर अभिमान था–मैं समझता था, तुममे चाहे कितनी भी बुराइयां हो, तुम्हारा चरित्र निष्कलंक है। मगर आज ज्ञात हुआ कि तुम जैसा नीच और अधम प्राणी संसार में न होगा। जिस अनाथिनी को मैंने अपने घर में शरण दी, जिसे मैं अपनी कन्या समझता था, जिसे तुम अपनी बहन कहते थे, उसी के प्रति तुम्हारी यह नीयत! तुम्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। उसने तुम्हें मार क्यों न डाला, मुझे यही दुःख है। तुम जैसे कायर को यही दंड उचित था।
दाननाथ ने दबी जुबान से पूछा–भाई साहब का ख्याल है कि अमृतराय...
बदरीप्रसाद ने दांत पीसकर कहा–बिलकुल झूठ, सोलहो आना झूठ। हमारा अमृतराय से सामाजिक प्रश्नों पर मतभेद है, लेकिन उनका चरित्र उज्जवल है, वैसा संसार में कम आदमियों का होगा। तुम तो उनके बचपन के मित्र हो, तुम्हीं बतालाओ मैं झूठ कहता हूं या सच!
दाननाथ ने देखा कि अब स्पष्ट कहने के सिवाए और कोई मार्ग नहीं है, चाहे कमलाप्रसाद नाराज ही क्यों न हो जाए। सिर नीचा करके एक अप्रिय सत्य, एक कठोर कर्त्तव्य का पालन करने के भाव से बोले–आप बिलकुल सत्य कहते हैं। उनमें तो एक शक्ति है, जो उनके कट्टर शत्रुओं को खुल्लमखुल्ला उनके सामने नहीं आने देती।
बदरीप्रसाद ने कमला की ओर हाथ उठाकर कहा–मारो इसके मुंह पर थप्पड़। अब भी शर्म आई कि नहीं। अभी हुआ ही क्या है। अभी तो केवल एक दांत टूटा है और सिर में जरा सी चोट आई, लेकिन असली मात तो तब पड़ेगी; जब सारे शहर में लोग थूकेंगे और घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। पापी मुझे भी अपने साथ ले डूबा। पुरखों की गाढ़ी कमाई आन-की-आन में उड़ा दी। कुल-मर्यादा युगों में बनती है और क्षण में बिगड़ जाती है। यह कोई मामूली बात नहीं। मुझे तो अब यही चिंता है कि अब कौन-सा मुंह लेकर बाहर निकलूंगा। सपूत कहीं मुंह दिखाने की जगह नहीं रखी!
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