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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


‘सारे शहर में चर्चा हो रही है, आप कहते हैं, सुनी कहां?’

‘किसी ने यों ही अफवाह उड़ाई होगी। कम-से-कम मैं कमलाप्रसाद को ऐसा आदमी नहीं समझता!’

‘इसकी वजह यही है कि आप आदमियों को पहचान नहीं सकते। मुझसे खुद उन डॉक्टर साहब ने कहा, जो कमलाप्रसाद की मरहम-पट्टी करने गए थे। कमलाप्रसाद से कोई अदावत नहीं है।’

‘डॉक्टर साहब ने और क्या कहा?’

‘उन्होंने साफ कहा कि कमलाप्रसाद के मुंह और छाती में सख्त चोट आई है और एक दांत टूट गया है।’

दाननाथ ने मुस्कुराकर कहा–जिसके मुंह और छाती पर चोट और एक दांत भी टूट जाए, वह अवश्य ही लम्पट है।

दाननाथ को उस वक्त तक विश्वास न आया, जब तक उन्होंने कमलाप्रसाद के घर जाकर तहकीकात न कर ली। कमलाप्रसाद मुंह पर पट्टी बांधे आंखें बंद किए पड़ा था। ऐसा मालूम होता था, मानो गोली लग गई है। दाननाथ की आवाज सुनी तो आंखों खोलीं और नाक सिकोड़ते कराहते हुए बोला–आइए भाई साहब, बैठिए, क्या आपको अब खबर हुई या आने की फुरसत ही न मिली? बुरे वक्त में कौन किसका होता है?

दाननाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा–यह बात नहीं है भाई साहब, मुझे तो अभी-अभी मालूम हुआ। सुनते ही दौड़ा आ रहा हूं। यह बात क्या है?

कमला ने कराहकर कहा–भाग्य की बात है भाई साहब; और क्या कहूं? उस स्त्री से ऐसी आशा न थी। जब दाने-दाने की मुहताज थी, तब अपने घर लाया। बराबर अपनी बहन समझता रहा, जो और लोग खाते थे, वही वह भी खाती थी, जो और लोग पहनते थे, वही वह भी पहनती थी; मगर वह भी शत्रुओं से मिली हुई थी। कई दिन से कह रही थी कि जरा मुझे अपने बगीचे की सैर करा दो।

आज जो उसे लेकर गया तो क्या देखता हूं कि दो मुस्टण्डे बंगले के बरामदे में खड़े हैं। मुझे देखते ही दोनों टूट पड़े। अकेले मैं क्या करता। वह पिशाचिनी भी उन दोनों के साथ मिल गई और मुझ पर डण्डों का प्रहार करने लगी। ऐसी मार पड़ी है भाई साहब की बस, कुछ न पूछिए। वहां न कोई आदमी न आदम-जात; किसे पुकारता? जब मैं बेहोश होकर गिर पड़ा तो तीनों वहां से खिसक गए।

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