उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
प्रेमा–भैया में किसी की तरफ ताकने की लत नहीं है। यही तो उनमें एक गुण है। पतिदेव कहीं गए हैं क्या!
पूर्णा–हां, आज एक निमंत्रण में गए हैं।
प्रेमा–सभा में नहीं गए? आज तो बड़ी भारी सभा हुई है।
पूर्ण–वह किसी सभा-समाज में नहीं जाते। कहते हैं, ईश्वर ने संसार रचा है, वह अपनी इच्छानुसार हरेक बात की व्यवस्था करता है; मैं उसके काम को सुधारने का साहस नहीं कर सकता।
प्रेमा–आज की सभा देखने लायक थी। तुम होती तो मैं भी जाती, समाज-सुधार पर एक महाशय का बहुत अच्छा व्याख्यान हुआ।
पूर्णा–स्त्रियों का सुधार करने की आवश्यकता नहीं है। पहले पुरुष लोग अपनी दशा तो सुधार लें, फिर स्त्रियों की दशा सुधारेंगे। उनकी दशा सुधर जाए, तो स्त्रियां आप-ही-आप सुधर जाएंगी। सारी बुराइयों की जड़ पुरुष ही हैं।
प्रेमा ने हंसकर कहा–नहीं बहन, समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं और जब तक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सुखी न होगा। पुरुष के विद्वान होने से क्या स्त्री विदुषी हो जाएगी? पुरुष तो आखिरकार सादे ही कपड़े पहनते हैं, फिर स्त्रियां क्यों गहनों पर जान देती हैं? पुरुषों में तो कितने ही क्वारें रह जाते हैं, स्त्रियों को क्यों बिना विवाह किए जीवन व्यर्थ जान पड़ता है? बताओ? मैं तो सोचती हूं, क्वांरी रहने में जो सुख है; वह विवाह करने में नहीं है।
पूर्णा ने धीरे से प्रेमा को ढकेलकर कहा–चलो बहन, तुम भी कैसी बातें करती हो। बाबू अमृतराय सुनेंगे, तो तुम्हारी खूब खबर लेंगे। मैं उन्हें लिख भेजूँगी कि यह अपना विवाह न करेंगी, आप कोई और द्वार देखें।
प्रेमा ने अमृतराय की प्रतिज्ञा का हाल न कहा। वह जानती थी कि इससे पूर्णा की निगाह में उनका आदर बहुत कम हो जाएगा। बोली–वह स्वयं विवाह न करेंगे।
पूर्णा–चलो, झूठ बकती हो।
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