लोगों की राय

उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

262 पाठक हैं

‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


प्रेमा–नहीं बहन, झूठ नहीं है। विवाह करने की उनकी इच्छा नहीं है। शायद कभी नहीं थी। दीदी के मर जाने के बाद, वह कुछ विरक्त-से हो गए थे। बाबूजी के बहुत घेरने पर और मुझ पर दया करके वह विवाह करने पर तैयार हुए थे; पर अब उनका विचार बदल गया है। और मैं भी समझती हूं कि जब एक आदमी स्वयं गृहस्थी के झंझट में न फंसकर कुछ सेवा करना चाहता है; तो उसके पांव की बेड़ी न बनना चाहिए। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, पूर्णा, मुझे इसका दुःख नहीं है। उनकी देखा-देखी मैं भी कुछ कर जाऊंगी।

पूर्णा का विस्मय बढ़ता ही गया। बोली–आज चार बजे तक तुम ऐसी बातें न करती थीं, एकाएक यह कैसी काया-पलट हो गई? उन्होंने किसी से कुछ कहा है क्या?

प्रेमा–बिना कहे भी तो आदमी अपनी इच्छा प्रकट कर सकता है।

पूर्णा–मैं एक दिन पत्र लिखकर उनसे पूछूंगी।

प्रेमा–नहीं पूर्णा, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं। पत्र-वत्र न लिखना, मैं किसी के शुभ-संकल्प में विघ्न न डालूंगी। मैं यदि और कोई सहायता नहीं कर सकती, तो कम-से-कम उनके मार्ग का कण्टक न बनूंगी।

पूर्णा–सारी उम्र रोते कटेगी; कहे देती हूं।

प्रेमा–ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो आदमी सह न सके। वह जानते हैं कि मुझे इससे दुःख नहीं, हर्ष होगा, नहीं तो वह कभी यह इरादा न करते। मैं ऐसे सज्जन प्राणी का उत्साह बढ़ाना अपना धर्म समझती हूं। उसे गृहस्थी में नहीं फंसाना चाहती।

पूर्णा ने उदासीन भाव से कहा–तुम्हारी माया मेरी समझ में नहीं आती बहन, क्षमा करना। मैं यह कभी न मानूंगी कि तुम्हें इससे दुःख न होगा!

प्रेमा–तो फिर उन्हें भी होगा।

पूर्णा–पुरुषों का हृदय कठोर होता है।

प्रेमा–तो मैं भी अपना हृदय कठोर बना लूंगी।

पूर्णा–अच्छा बना लेना, तो अब न कहूंगी। लाओ बाजा, तुम्हें एक गीत सुनाऊं।

प्रेमा ने हारमोनियम सम्भाला और पूर्णा गाने लगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book