उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
दाननाथ कुछ उत्तर देने ही को थे कि प्रेमा ने उनके मुखाभास से उनके मन का भाव ताड़कर कहा–जाना-आना भला कहीं छूट सकता है। बहन! इनका जी है अच्छा नहीं रहा।
सुमित्रा–हां देख तो रही हूं। आधे भी नहीं रहे।
दाननाथ ने प्रेमा को एक पत्र दिखाकर कहा–यह देखो, अमृतराय का यह एक लेख है।
प्रेमा ने झपटकर पत्र ले लिया, फिर कुछ संयमित होकर बोली–किस विषय पर है? वह तो लेख-वेख नहीं लिखते।
दान०–पढ़ लो न!
प्रेमा–पढ़ लूंगी, पर है क्या? वही वनिता-भवन के सम्बन्ध में कुछ लिखा होगा।
दान०–मुझे गालियां दी है।
प्रेमा को मानो बिच्छू ने डंक मारा। अविश्वास के भाव सो बोली–तुम्हें गालियां भी दी हैं! तुम्हें!! मैं उन्हें इससे बहुत ऊंचा समझती थी।
दान०–मैंने गालियां दी हैं, तो वह क्यों चुप रहते?
प्रेमा–तुमने तो गालियां नहीं दी। मतभेद गाली नहीं है।
दान०–किसी को गाली देने में मजा आए तो?
प्रेमा–तो मैं एक की सौ-सौ सुनाऊंगी! मैं इन्हें इतना नीच नहीं समझती थी, अब मालूम हुआ कि वह भी हमीं जैसे राग-द्वेष से भरे हुए मनुष्य हैं।
दान०–ऐसी चुन-चुन कर गालियां निकाली हैं कि मैं दंग रह गया।
प्रेमा–अब इस बात का जिक्र ही न करो, मुझे दुःख होता है।
दाननाथ ने मुस्कुराकर कहा–जरा पढ़ तो लो, फिर बतलाओ कि इस पर क्या कार्रवाई की जाए? पटकनी दूं या खोपड़ी सहलाऊं।
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