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उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


प्रेमा–तुम्हें दिल्लगी सूझती है और मुझे क्रोध आ रहा है। जी चाहता है, इसी वक्त कह दूं कि तुम अब मेरी नजरों से गिर गए। और लोग चाहे तुमसे खुश हुए हों, इस चाल से तुम्हें कुछ चन्दे और मिल जाए, लेकिन मेरी निगाहों में तुमने अपनी इज्जत खो दी।

दान०–तो चलो हम-तुम दोनों साथ चलें। तू जबान का तीर चलाना मैं अपने हाथों की सफाई दिखाऊँगा।

सुमित्रा–पहले लेख तो पढ़ लो। गालियां दी होती तो लाला यों बातें न करते। अमृतराय ऐसा आदमी ही नहीं है।

प्रेमा ने सहमी हुई आंखों से लेख का शीर्षक देखा। पहला वाक्य पढ़ा तो चढ़ी हुई त्योरियां ढल गयीं, दूसरा वाक्य पढ़ते ही वह पत्र पर और झुक गयी, तीसरे वाक्य पर उसका कठोर मुख सरल हो गया, चौथे वाक्य वह ओठों पर हास्य की रेखा प्रकट हुई, और पैरा समाप्त करते-करते उसका सम्पूर्ण बदन खिल उठा। फिर ऐसा जान पड़ा, मानो वह वायुयान पर उड़ी जा रही है; सारी ज्ञानेन्द्रियां मानो स्फूर्त से भर उठी थीं। लेख के तीनों पैरे समाप्त करके उसने इस तरह सांस ली, मानो वह किसी कठिन परीक्षा से निकल आयी।

दाननाथ ने पूछा–पढ़ लिया? मार खाने का काम किया है न? चलती हो तो चलो, मैं जा रहा हूं।

प्रेमा ने पत्र की तह करते हुए कहा–तुम जाओ, मैं न जाऊंगी।

‘आज मुझे मालूम हुआ है कि संसार में मेरा कोई सच्चा मित्र है, तो यही है। मैंने इसके साथ बड़ा अन्याय किया। आज क्षमा मागूंगा।’

‘अगर आज न जाओ तो अच्छा। वे समझेंगे। खुशामद करने आए हैं।’

‘नहीं प्रिये; अब जी नहीं मानता। उनके गले से लिपट कर रोने का जी चाहता है।’

यह कहते हुए दाननाथ बाहर चले गए। सुमित्रा भी बूढ़ी अम्मा के पास जा बैठी। प्रेमा की सुकीर्ति का बखान सुने बिना उसे कब चैन आ सकता था? प्रेमा ने उस लेख को फिर पढ़ा। तब जाकर चारपाई पर लेट रही। उस लेख का एक-एक शब्द उसके दृष्टि-पर पर खिंचा था। मन में ऐसी-ऐसी कल्पनाएं उठ रही थी, जिन्हें वह चाहती थी कि न उठें?

फिर उसके भावों ने एक विचित्र रूप धारण किया–अमृतराय ने यह लेख क्यों लिखा? उन्होंने अगर दाननाथ को सचमुच गाली दी होती, तो चाहे एक क्षण के लिए उन पर क्रोध आता, पर कदाचित चित्त इतना अशान्त न होता।

सहसा उसने पत्र को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और पुर्जें खिड़की के बाहर फेंक दिए। जो पंख पक्षी को जाल के नीचे बिखरे हुए दानों की ओर ले जाए उनका उखड़ जाना ही अच्छा।

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