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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


अमृत०–मगर तुम्हारी यह चाल उलटी पड़ी, क्यों? किसी चतुर आदमी से सलाह क्यों न ली। तुम मेरे यहां लगातार एक हफ्ते तक दस-ग्यारह बजे तक बैठते और मेरी तारीफों के पुल बांध देते, तो प्रेमा को मेरे नाम से चिढ़ हो जाती, मुझे यकीन है।

दान०–मैंने तुम्हारे ऊपर चन्दे के रुपये हजम करने का इलजाम लगाया, हालांकि मैं कसम खाने को तैयार था कि वह सर्वथा मिथ्या है।

अमृत०–मैं जानता था।

दान०–मुझे तुम्हारे ऊपर यहां तक आक्षेप करने में संकोच न हुआ कि...

अमृत०–अच्छा चुप रहो भाई जो कुछ किया अच्छा किया, इतना मैं तब भी जानता था कि अगर कोई मुझ पर वार करता तो तुम पहले अपना सीना खोलकर खड़े हो जाते। चलो, तुम्हें आश्रम की सैर कराऊं।

दान०–चलूंगा, मगर मैं चाहता हूँ, पहले तुम मेरे दोनों कान पकड़कर खूब जोर से खींचो और दो-चार थप्पड़ जोर-जोर से लगाओ।

अमृत०– इस वक्त तो नहीं, पर पहले कई बार जब तुमने शरारत की तो ऐसा क्रोध आया कि गोली मार दूं, मगर फिर यही ख्याल आ जाता था कि इतनी बुराईयों पर भी औरों से अच्छे हो। आओ चलो, तुम्हें आश्रम की सैर कराऊँ। आलोचना की दृष्टि से देखना। जो बात तुम्हें खटके, जहां सुधार की जरूरत हो फौरन बताना।

दान०– पूर्णा भी तो यहीं आ गयी है! उसने उस विषय में कुछ और बातें कीं?

अमृत०–अजी उसकी न पूछो, विचित्र स्त्री है। इतने दिन आए हुए मगर अभी तक रोना बन्द नहीं हुआ। अपने कमरे से निकलती ही नहीं। मैं खुद कई बार गया, कहा–जो काम तुम्हें सबसे अच्छा लगे, वह अपने जिम्मे लो, मगर हां या ना कुछ मुंह से निकलती ही नहीं। औरतों से भी नहीं बोलती। खाना दूसरे-तीसरे वक्त बहुत कहने सुनने से खा लिया। बस, मुंह ढांपे पड़ी रहती है। मैं चहता हूं कि और स्त्रियाँ उसका सम्मान करें, उसे कोई अधिकार दे दूँ, किसी तरह उस पर प्रकट हो जाए कि एक शोहदे की शरारत ने उसका बाल भी बांका नहीं किया, उसकी इज्जत जितनी पहले थी, उतनी ही अब भी है, पर वह कुछ होने नहीं देती, तुम्हारा उससे परिचय है न?

दान०–बस दो-एक बार प्रेमा के साथ बैठे देखा है। इससे ज्यादा नहीं।

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