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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है

१५

दाननाथ जब अमृतराय के बंगले के पास पहुंचे, तो सहसा उनके कदम रुक गए, हाते के अन्दर जाते हुए लज्जा आयी। अमृतराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही ख्याल होगा कि जब चारों तरफ ठोकरें खा चुके और किसी ने साथ न दिया, तो यहां दौड़े हैं, वह इसी संकोच में फाटक पर खड़े थे कि अमृतराय का बूढ़ा नौकर अन्दर आता दिखायी दिया। दाननाथ के लिए अब वहाँ खड़ा रहना असम्भव था। फाटक में दाखिल हुए। बूढ़ा इन्हें देखते ही झुककर सलाम करता हुआ बोला–आओ भैया, बहुत दिनन मां सुधि लिहेव। बाबू रोज तुम्हारा चर्चा कर-कर पछतात रहे। तुमका देखि के फूले न समैहें। मजे में तो रह्यो? जाय के बाबू से कह देई।

यह कहता हुआ वह उल्टे पांव बंगले की ओर चला। दाननाथ भी झेंपते हुए उसके पीछे-पीछे चले। अभी वह बरामदे में भी न पहुंच पाए थे कि अमृतराय अन्दर से निकल आए ओर टूटकर गले मिले।

दाननाथ ने कहा–तुम मुझसे बहुत नाराज होगे।

अमृतराय ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा–यह न पूछो दानू, कभी तुम्हारे ऊपर क्रोध आया है, कभी दया आयी है. कभी दुःख हुआ है, कभी आश्चर्य हुआ है, कभी-कभी अपने ऊपर भी क्रोध आया है। मनुष्य का हृदय कितना जटिल है इसका सबक मिल गया। तुम्हें इस समय यहां देखकर भी मुझे इतना आनन्द नहीं हो रहा है, जितना होना चाहिए। सम्भव है, यह भी तुम्हारा क्षणिक उद्गार ही हो। हां, तुम्हारे चरित्र पर मुझे कभी शंका नहीं हुई। रोज तरह-तरह की बातें सुनता था, पर एक क्षण के लिए भी मेरा मन विचलित नहीं हुआ। यह तुमने क्या हिमाकत की कि कॉलेज से छुट्टी ले ली। छुट्टी कैन्सिल करा लो और कल से कॉलेज जाना शुरू करो।

दाननाथ ने इस बात का कुछ जवाब न देकर कहा–तुम मुझे इतना बता दो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया या नहीं? मैंने तुम्हारे साथ बड़ी नीचता की है।

अमृतराय ने मुसकराकर कहा–सम्पति पाकर नीच हो जाना स्वाभाविक है भाई, तुमने कोई अनोखी बात नहीं की। जब थोड़ा-सा धन पाकर लोग अपने को भूल जाते हैं, तो तुम प्रेमा-जैसी साक्षात लक्ष्मी पाकर क्यों ने भूल उठते!

दाननाथ ने गम्भीर भाव से कहा–यही तो मैंने सबसे बड़ी भूल की। मैं प्रेमा के योग्य न था।

अमृत०–जहां तक मैं समझता हूँ, प्रेमा ने तुम्हें शिकायत का कोई अवसर न दिया होगा।

दान०–कभी नहीं, लेकिन न जाने क्यों शादी होते ही मैं शक्की हो गया। मुझे बात-बात पर सन्देह होता था कि प्रेमा मन में मेरी उपेक्षा करती है। सच पूछो तो मैंने उसको जलाने और रुलाने के लिए तुम्हारी निन्दा शुरू की। मेरा दिल तुम्हारी तरफ से हमेशा साफ रहा।

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