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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


अब दोनों आदमी अन्दर पहुंचे। एक विस्तृत चौकोर आंगन था, जिसके चारों तरफ बरामदा था। बरामदे ही में कमरे के द्वार थे। दूसरी मंजिल भी इसी नमूने की थी। नीचे के हिस्से में कार्यालय था। ऊपर के भाग में स्त्रियां रहती थीं। दस बजे का समय था। काम शुरू हो गया था। महिलाएं अपने-अपने काम पर पहुंच गयी थीं। कहीं सिलाई हो रही थी, कहीं मोजे, गुलबन्द आदि बुने जा रहे थे। कहीं मुरब्बे और अचार बन रहे थे। प्रत्येक विभाग एक योग्य महिला के अधीन था। आवश्यकतानुसार स्त्रियां उनकी सहायता करती थीं। इस भांति उन्हें शिक्षा भी दी जा रही थी–आंगन में फूल-पत्ते लगे हुए थे। कई स्त्रियां जमीन खोद रही थीं, कई पानी दे रही थीं। चारों तरफ चहल-पहल थीं कहीं शिथिलता, निरुत्साह या कलह का नाम नहीं था।

दाननाथ ने पूछा–इतनी सुदक्ष स्त्रियां तुम्हें कहां से मिल गयीं?

अमृत०–कुछ अन्य प्रान्तों से बुलायी गई हैं, कुछ बनायी गयी हैं और कुछ ऐसी हैं जो नित्य नियम से आकर सिखाती हैं और चार बजे चली जाती हैं। जज साहब मि. जोशी की धर्मपत्नी चित्र-कला में निपुण हैं। वह ८ स्त्रियों की एक क्लास को दो घण्टे रोज पढ़ाने आया करती हैं। मिसेज सिलाई के काम में चतुर हैं। वह प्रायः दिन भर यहीं रहती हैं। तीन महिलाएँ पाठशाला में काम करती हैं। पहले मुझे सन्देह होता था कि भले घर की रमणियां अपना समय यहां क्यों देने लेगीं, लेकिन अब अनुभव हो रहा है कि उनमें सेवा का भाव पुरुषों से कहीं अधिक है। परदे का यहां पूर्ण बहिष्कार है। चलो, बगीचे की तरफ चलें। यह विभाग पूर्णा के अधिकार में है। मैंने समझा यहां उसके मनोरंजन के लिए काफी सामान मिलेगा, और खुली हवा में कुछ देर काम करने से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो जाएगा।

बगीचा बहुत बड़ा न था। आम, अमरूद, लीची की कलमें लगायी जा रही थीं। हां, फूलों के पौधे तैयार हो गये थे। बीच में एक हौज था और तीन-चार छोटी-छोटी लड़कियां हौज से पानी निकाल-निकालकर क्यारियों में डाल रही थीं। हौज तक आने के लिए चारों ओर चार रविशें बनी हुई थीं। और हरेक रविश पर बेलों से ढके हुए बांसों के बने हुए छोटे-छोटे फाटक थे। उसके साये में पत्थर की बेचें रखी हुई थीं! पूर्णा इन्हीं बेचों में से एक पर सिर झुकाये बैठी फूलों का एक गुलदस्ता बना रही थी। किसके लिए, यह कौन जान सकता है?

दोनों मित्रों की आहट पाकर पूर्णा उठ खड़ी हुई और गुलदस्ते को बेंच पर रख दिया।

अमृतराय ने पूछा–कैसी तबीयत है पूर्णा? यह देखो दाननाथ तुमसे मिलने आये हैं। बड़े उत्सुक हैं।

पूर्णा ने सिर झुकाये हुए ही पूछा–प्रेमा बहन तो अच्छी तरह हैं। उनसे कह दीजियेगा, क्या मुझे भूल गयीं या मुंह देखे भर की प्रीति थी? सुधि भी न ली कि मरी या जीती है।

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