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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दान०–वह तो कई बार तुमसे मिलने के लिए कहती थीं, पर संकोच के मारे न आ सकीं। गुलदस्ता तो बहुत सुन्दर बनाया है।

तीनों लड़कियां डोल छोड़-छोड़कर आ खड़ी हुई थीं। यहां तो प्रशंसा मिल रही थी, उससे वे क्यों वंचित रहतीं। एक बोल उठी–देवीजी ने उस पीपल के पेड़ के नीचे एक मन्दिर बनाया है, चलिए आपको दिखायें।

पूर्णा–यह झूठ बोलती है। यहां मंदिर कहां है?

बालिका-बनाया तो है, चलिए, दिखा दूँ। वहीं रोज गुलदस्ते बना-बनाकर ठाकुर जी को चढ़ाती हैं।

अमृतराय ने बालिका का हाथ पकड़कर कहा–कहां मंदिर बनाया है, चलो देखें। तीनों बालिकाएं आगे-आगे चलीं। उनके पीछे दोनों मित्र थे और सबके पीछे पूर्णा धीरे-धीरे चल रही थी।

दाननाथ ने अंग्रेजी में कहा–भक्ति मनुष्य का अन्तिम आश्रम है।

अमृतराय बोले–अब मुझे यहां एक मन्दिर बनवाने की जरूरत मालूम हो रही है।

बाग के उस सिरे पर एक पुराना वृक्ष था। उसके नीचे थोड़ी-सी जमीन लीप पोतकर पूर्णा ने एक घरौंदा-सा बनाया था। वह फूल-पत्तों से खूब सजा था। इसी घरौंदे में केले के पत्तों से बने हुए सिंहासन पर कृष्ण की एक मूर्ति रखी हुई थी मूर्ति वही थी, जो बाजार में एक-एक पैसे की मिलती है। पर औरों के लिए वह चाहे मिट्टी की मूर्ति हो, पूर्णा के लिए यह अनन्त जीवन का स्रोत, अखण्ड प्रेम का सागर, अपार भक्ति का भण्डार थी। सिंहासन के सामने चीनी के पात्र में एक सुन्दर गुलदस्ता रखा हुआ था। उस अनाथिनी के हृदय से निकली हुई श्रद्धा की एक ज्योति सी वहां छिटकी हुई थी, जिसने दोनों संशयवादियों का मस्तक भी एक क्षण के लिए नत कर दिया।

अमृतराय जरा देर किसी विचार में मग्न खड़े रहे। सहसा उनके नेत्र सजल हो गए, पुलकित कण्ठ से बोले–पूर्णा, तुम्हारी बदौलत आज हम लोगों को भी भक्ति की झलक मिल गई। अब हम नित्य कृष्ण भगवान के दर्शनों को आया करेंगे। उनकी पूजा का कौन-सा समय है?

पूर्णा की मुखाकृति इस समय अवर्णनीय आभा से प्रदीप्त थी और उसकी आँखें गहरी, शांत विह्वलता से परिप्लावित हो रही थीं। बोली–मेरी पूजा का कोई समय नहीं है बाबूजी। जब हृदय में शूल उठता है, यहां चली आती हूं और गोविन्द के चरणों में बैठकर रो लेती हूं। कह नहीं सकती बाबूजी, यहां रोने से मुझे कितनी शान्ति मिलती है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि गोविन्द स्वयं मेरे आंसू पोछतें हैं। मुझे अपने चारों ओर अलौकिक सुगन्ध और प्रकाश का अनुभव होने लगता है। उनकी सहास विकसित मूर्ति देखते ही मेरे चित्त में आशा और आनन्द की हिलोरें-सी उठने लगती हैं। प्रेमा बहन कभी आएंगी बाबूजी? उनसे कह दीजिएगा, उन्हें देखने के लिए मैं बहुत व्याकुल हो रही हूँ।

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