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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


एक उपाए है। शत्रु को बहला कर, उस पर अपने संधि-प्रेम का विश्वास जमाकर, किले से निकालना होगा।

उसने पुष्पा की ठुड्डी पकड़कर अपनी ओर फेरते हुए कहा–अगर यह बात तुम्हें इतनी लग रही है तो मैं उसे वापस लिए लेता हूँ। उसके लिए तुमसे क्षमा मांगता हूं। तुमको ईश्वर ने वह शक्ति दी है कि तुम मुझसे दस-पांच दिन बिना बोले रह सकती हो, लेकिन मुझे तो उसने वह शक्ति नहीं दी। तुम रूठ जाती हो तो जैसे मेरी नाड़ियों में रक्त का प्रवाह बंद हो जाता है। अगर वह शक्ति तुम मुझे भी प्रदान कर सको तो मेरी और तुम्हारी बराबर की लड़ाई होगी और मैं तुम्हें छेड़ने न आऊंगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं कर सकती हो तो इस अस्त्र का मुझ पर वार न करो।

पुष्पा मुस्करा पड़ी। उसने अपने अस्त्र से पति को परास्त कर दिया था। जब वह दीन बनकर उससे क्षमा मांग रहा है उसका हृदय क्यों न पिघल जाए।

संधि पत्र पर हस्ताक्षर स्वरूप पान का एक बीड़ा लगाकर संतकुमार को देती हुई बोली,–अब से कभी वह बात मुंह से न निकालना। अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूं तो तुम भी मेरे आश्रित हो। मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूं। इतना ही काम दूसरों के घरों में करूं तो अपना निबाह कर सकती हूं या नहीं, बोलो।

संतकुमार ने कड़ा जवाब देने की इच्छा को रोककर कहा–बहुत अच्छी तरह।

‘तब मैं जो कुछ कमाऊंगी वह मेरा होगा। यहां मैं चाहे प्राण भी दे दूं पर मेरा किसी चीज पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो।’

‘कहती जाओ, मगर उसका जवाब सुनने के लिए तैयार रहो।’

‘तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है, केवल हठ धर्म है। तुम कहोगे यहां तुम्हारा जो सम्मान है वह वहां न रहेगा. वहां कोई तुम्हारी रक्षा करने वाला न होगा, कोई तुम्हारे दुःख-दर्द में साथ देने वाला न होगा। इसी तरह की और भी कितनी ही दलीलें तुम दे सकते हो। मगर मैंने मिस बटलर को आजीवन क्वांरी रह कर सम्मान के साथ जिंदगी काटते देखा है। उनका निजी जीवन कैसा था, यह मैं नहीं जानती। संभव है वह हिन्दू गृहणी के आदर्श के अनुकूल न रहा हो, मगर उनकी इज्जत सभी करते थे, और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी पुरुष का आश्रय लेने की कभी जरूरत नहीं हुई।’

संतकुमार मिस बटलर को जानता था। वह नगर की प्रसिद्ध लेडी डाक्टर थीं। पुष्पा के घर से उसका घराव सा हो गया था। पुष्पा के पिता डाक्टर थे। और एक पेशे के व्यक्तियों में कुछ घनिष्ठता हो ही जाती है। पुष्पा ने जो समस्या उसके सामने रख दी थी उस पर मीठे और निरीह शब्दों से कुछ कहना उसके लिए कठिन हो रहा था। और चुप रहना उसकी पुरुषता के लिए उससे भी कठिन था।

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