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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


‘पुष्पा एक मिनट तक विचार में डूबी रही। फिर संदेहभाव से बोली–मुझे तो आशा नहीं कि दादा के पास इतने रुपये फालतू हों।’

‘जरा कहो तो।’

‘कहूं कैसे–क्या मैं उनका हाल जानती नहीं? उनकी डाक्टरी अच्छी चलती है, पर उनके खर्च भी तो है। बीरू के लिए हर महीने पांच सौ रुपये इंग्लैंड भेजने पड़ते हैं। तिलोत्तमा की पढ़ाई का खर्च भी कुछ कम नहीं। संचय करने की उनकी आदत नहीं है। मैं उन्हें संकट में नहीं डालना चाहती।’

‘मैं उधार मांगता हूं। खैरात नहीं।

‘जहां इतना घनिष्ठ संबंध है। वहां उधार के माने खैरात के सिवा और कुछ नहीं। तुम रुपये न दे सके तो वह तुम्हारा क्या बना लेंगे? अदालत जा नहीं सकते. पंचायत कर नहीं सकते, लोग ताने देंगे।’

संतकुमार ने तीखेपन से कहा–‘तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं रुपये न दे सकूंगा? दुनिया हंसेगी।’

पुष्पा मुंह फेर कर बोली–‘तुम्हारी जीत होना निश्चित नहीं है। और जीत भी हो जाए और तुम्हारे हाथ में रुपये भी आ जायें तो यहां कितने जमींदार ऐसे हैं जो अपने कर्ज चुका सकते हों। रोज ही तो रियासतें कोर्ट आफ लार्ड में आया करती हैं। यह भी मान लें कि तुम किफायत से रहोगे और धन जमाकर लोगे, लेकिन आदमी का स्वभाव है कि जिस रुपये को हजम कर सकता है उसे हजम कर जाता है। धर्म ओर नीति को भूल जाना उसकी एक आम कमजोरी है।’

संत ने पुष्पा को कड़ी आंखों से देखा। पुष्पा के कहने में जो सत्य था वह तीर की तरह निशाने पर जा बैठा। उसके मन में जो चोर बैठा था उसे पुष्पा ने पकड़ कर सामने खड़ा कर दिया था। तिलमिला कर बोला–आदमी को तुम इतनी नीच समझती हो, तुम्हारी इस मनोवृत्ति पर मुझे अचरज भी है और दुख भी। इस गए गुजरे जमाने में भी समाज पर धर्म और नीति का ही शासन है। जिस दिन संसार से धर्म और नीति का नाश हो जाएगा उसी दिन समाज का अंत हो जाएगा।

उसने धर्म और नीति की व्यापकता पर एक लम्बा दार्शनिक व्याख्यान दे डाला। कभी किसी घर में कोई चोरी हो जाती है तो कितनी हलचल मच जाती है। क्यों? इसीलिए कि चोरी एक गैर मामूली बात है। अगर समाज चोरों का होता तो किसी का साह होना उतनी ही हलचल पैदा करता। रोगों की आज बहुत बढ़नी सुनने में आती है, लेकिन गौर से देखो तो सौ में एक आदमी से ज्यादा बीमार न होगा। अगर बीमारी आम बात होती तो तंदुरूस्तों की नुमाइश होती। आदि। पुष्पा विरक्त सी सुनती रही। उसके पास जवाब तो थे, पर वह इस बहस को तूल नहीं देना चाहती थी। उसने तय कर लिया था कि वह अपने पिता से रुपये के लिए न कहेगी और किसी तर्क या प्रमाण का उस पर कोई असर न हो सकता था।

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