उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
संतकुमार ने भाषण समाप्त करके जब उससे कोई जबाव न पाया तो एक क्षण के बाद बोला–‘क्या सोच रही हो?’ मैं तुमसे सच कहता हूं, मैं बहुत रुपये दे दूँगा।’
पुष्पा ने निश्चय भाव से कहा–‘तुम्हें कहना हो जाकर खुद कहो, मैं तो नहीं लिख सकती।’
संतकुमार ने होठ चबाकर कहा–जरा सी बात तुमसे नहीं लिखी जाती, उस पर दावा यह है कि घर पर मेरा भी अधिकार है।
पुष्पा ने जोश के साथ कहा–‘मेरा अधिकार तो उसी क्षण हो गया जब मेरी गांठ तुमसे बंधी।’
संतकुमार ने गर्व के साथ कहा–ऐसा अधिकार जितनी आसानी से मिल जाता है उतनी आसानी से छिन भी जाता है।
पुष्पा को जैसे किसी ने धक्का देकर उस विचार धारा में डाल दिया जिसमें पांव रखते उसे डर लगता था। उसने यहां आने के एक दो महीने के बाद ही संतकुमार का स्वभाव पहचान लिया था। उसके साथ निबाह करने कि लिए उसे उनके इशारों की लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। उसे अपने व्यक्तित्व को उनके अस्तित्व में मिला देना पड़ेगा। वह वही सोचेगी जो वह सोचेंगे, वही करेगी जो वह करेंगे। अपनी आत्मा के विकास के लिए यहां कोई अवसर न था। उनके लिए लोक या परलोक में जो कुछ था वह सम्पत्ति थी। यहीं से उनके जीवन को प्रेरणा मिलती थी। सम्पत्ति के मुकाबले में स्त्री या पुत्र की भी उनकी निगाह में कोई हकीकत न थी। एक चीनी की प्लेट पुष्पा के हाथ से टूट जाने पर उन्होंने उसके कान ऐंठ लिए थे। फर्श पर स्याही गिरा देने की सजा उन्होंने पंकजा से सारा फर्श धुलवा कर दी थी। पुष्पा उनके रखे रुपयों को कभी हाथ तक न लगाती थी। यह ठीक है कि वह धन को महज जमा करने की चीज न समझते थे। धन, भोग करने की वस्तु है उनका यह सिद्धांत था। फिजूलखर्ची या लापरवाही बर्दाश्त न करते थे। उन्हें अपने सिवा किसी पर विश्वास न था। पुष्पा ने कठोर आत्मसमर्पण के साथ इस जीवन के लिए अपने को तैयार कर लिया था। पर बार-बार यह याद दिलाया जाना कि यहां उसका कोई अधिकार नहीं है, यहां वह केवल एक लौंडी की तरह है उसे असह्य था। अभी उस दिन इसी तरह की एक बात सुनकर उसने कई दिन खाना-पीना छोड़ दिया था। और आज तक उसने किसी तरह मन को समझा कर शांत किया था कि यह दूसरा आघात हुआ। इसने उसके रहे-सहे धैर्य का भी गला घोंट दिया।
संतकुमार तो उसे यह चुनौती देकर चले गए। वह वहीं बैठी सोचने लगी अब उसको क्या करना चाहिए। इस दशा में तो वह अब नहीं रह सकती। वह जानती थी कि पिता के घर में भी उसके लिए शांति नहीं है। डाक्टर साहब भी संतकुमार को आदर्श युवक समझते थे और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना कठिन था कि संतकुमार की ओर से कोई बेजा हरकत हुई है। पुष्पा का विवाह करके उन्होंने जीवन की एक समस्या हल कर ली थी।
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