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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो। मैं कहता हूँ हमारी फतेह है।

ऐसी सैकड़ों नजीरें मौजूद है जिसमें बेटों पोतों ने बैनामे मंसूख कराए हैं। पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाए हाथ का खेल है।

संतुकुमार ने दुविधा में पड़ कर कहा–लेकिन फादर को भी तो राजी करना होगा। उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा।

‘उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है।’

‘लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है।’

‘तो उन्हें भी गोली मारो। हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग में खलल है।’

‘यह साबित करना आसान नहीं है। जिसने बड़ी-बड़ी किताबें लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है उसे दीवार कैसे साबित करोगे?’

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा–यह सब मैं देख लूगा। किताब लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात। मैं तो कहता हूं, जितने लेखक है, सभी सनकी हैं–पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं।

अगर यह लोग अपने होश में हो तो किताबें न लिख कर दलाली करें, या खोंचे लगाएं। यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा। पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, उन्निद, तपेदिक ही साथ लगता है! रुपये का जुगाड़ तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दो। और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना। अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू कर देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो। यह समझ लो वह सब-जज साहब की अकेली लड़की है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है।

सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते। मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं। मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है। सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो। उस चुड़ैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ। इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे तो झुका हुआ सायबान हो। फिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगा। औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका। जो रूपवान हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देख कर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती हैं। उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है, मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी पड़ेगी। तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आएगी। अपनी सारी कला खर्च करनी पड़ेगी।

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