उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
‘यह कला मैं खूब सीख चुका हूं।’
‘तो आज शाम क्लब में।’
‘जरूर आऊंगा।’
‘रुपये का प्रबंध भी करना।’
वह तो करना ही पड़ेगा।’
इस तरह संतकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया। संतकुमार न लम्पट था, न रसिक; मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जमीन चेहरा, गोरा चिट्टा। जब सूट पहन कर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था वही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिर जवाब। उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी, मगर संसार की गति से वाकिफ थी, और अपनी ऊपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ न कुछ आलोचना कर सकती थी, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था और प्रांजल भाषा में। मिजाज में नफासत इतनी थी कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असह्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनन्द आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंड़ापन देख कर वह भौंओं से या होंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष समाज में उसकी मनोवृत्ति की ओर। उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देख कर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती भी; कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं रूप में मग्न थी।
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