उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए संतकुमार का हृदय कांप उठा।
‘कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है।’
‘मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं। देखिए दुनियावाले कितने खुदगर्ज हैं। जिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो सकता है वह थोड़े से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुईं है।’
संतकुमार ने उतरते हुए मुख से कहा–उसका समय आ रहा है। और उठ खड़े हुए। यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो।
तिब्बी ने आग्रह किया–कुछ देर और बैठिए न?
‘आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आऊंगा।’
‘कब आऊंगा?’
‘जल्दी ही आऊंगा।’
‘काश मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।’
संतकुमार बरामदे से कूद कर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर थी, किसी को कुछ समझती न थी, न कोई उससे प्रेम का स्वांग भर कर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में सारे अविश्वास के बीच में एक कोमल, सहमा हुए विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था उस कोमल भाग के स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल, विश्वासमयी कातर बालिका बन जाती थी, आज इत्तफाक से संतकुमार ने वह आसन पा लिया था और जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है; मानो वह मेस्मराइज हो। अब संतकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता। अभागिनी पुष्पा इस सत्य पुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बन कर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है। और इतने पर भी संतकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कौन सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे!
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