उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता था, क्योंकि शंका होती थी, कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फब्तियां कसने लगेगी। पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी कोमलता खिल उठी थी। संतकुमार ने देखा उसका संयम फिसलता जा रहा है। जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।
बोला–कितनी ही बार। बिलकुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।
तिब्बी प्रसन्न होकर बोली–आपने मुझे कभी बताया नहीं।
‘आप भी तो आज ही खुली हैं।’
‘मैं डरती हूँ कि लोग यह कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए। मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।’
संतकुमार ने रसिक भाव से कहा–मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा।
तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़कर बोली–आप तो दिल्लगी करते हैं। मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं। मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता।
और जैसे वह आज संतकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती। मानों वह जो आश्रय बहुत जिनों से ढूंढ रही थी, वह यकायक मिल गया है।
संतकुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहा– स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी!
‘अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें?’
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