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उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूद कर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी जितनी खुद सारा यश पाने से होती। उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगता था मानो उनका मस्तक कुछ ऊंचा हो गया, मानों मुख पर तेज आ गया है। यह लोग जब संतकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे?

इस तरह एक महीना गुजर गया और संतकुमार ने मुकदमा दायर न किया। उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मि. मलिक को। शहादतें भी तैयार करनी थीं। इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रुपये का इंतजाम भी करना था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती। पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। संतकुमार कभी-कभी निराश हो जाता। कुछ समझ में न आता क्या करें। दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीस कर रह जाते।

संतकुमार कहता–जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं। मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।

सिन्हा समझाता–मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है। अपने स्वार्थ के लिए नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है। न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है। जो व्यक्ति सत्य के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है।

‘ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ। सिन्हा! तुम चाहते हो तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते। मैं न जानता था तुम इतने भावुक हो।’

‘उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो। और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं। हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे। इसके लिए शहादतों की जरूरत है। वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते।’

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