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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


और अन्त में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठा कर सम्पत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से। बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं। नीति कहती है कि उस जायदाद को बेच कर उसके बीस हजार दे दिए जाएं, बाकी उन्हें मिल जाएं। अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता। इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया। अब किसी तरह नहीं हिल सकता। और यद्यपि उससे चिर-संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और फूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो।

एक दिन उन्होंने सेठ गिरधरदास के पास जाकर साफ-साफ कह दिया–अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लड़के आपके ऊपर दावा करेंगे।

गिरधर दास नए जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कम्पनियों में हिस्सा लेते थे और बाजार अच्छा देख कर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे। सारा कारोबार अंग्रेजी ढंग से करते थे। उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित करते थे। गिरधर दास पक्के जड़वादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते रहते थे। कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पड़े तो सूद पर रुपये देते थे। मक्कूलाल जी साल-साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते थे। हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रुपये इनाम दे आते। गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी के व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रियासत करते थे कि त्यौहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के। अपने हकों के लिए लड़ना और आन्दोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असम्भव था।

देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गए। उनकी बड़ी इज्जत करते थे। उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिन्दी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकम दान दे चुके थे। पंडों-पुजारियों के नाम से चिढ़ते थे, दूषित दान-प्रथा पर एक पैम्पलेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहे। उनका आशय क्या है, वह समझ में न आया। फिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। बेतुकी बातें कर रहे हैं। देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख्याल और मजबूत हो गया।

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