उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 262 पाठक हैं |
‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
षोडशी बड़ी धूम से हुई। कई सौ ब्राह्मणों ने भोजन किया। दान-दक्षिणा में भी कोई कमी न की गयी।
रात के बारह बज गए थे। लाला बदरीप्रसाद ब्राह्मणों को भोजन कराके लेटे, तो देखा–प्रेमा उनके कमरे में खड़ी है। बोले–यहाँ क्यों खड़ी हो बेटी? रात बहुत हो गई, जाकर सो रहो।
प्रेमा–आपने अभी कुछ भोजन नहीं किया है न?
बदरी०–अब इतनी रात गए मैं भोजन न करूंगा। थक भी बहुत गया हूं। लेटते ही लेटते सो जाऊंगा।
यह कहकर बदरीप्रसाद चारपाई पर बैठ गए और एक क्षण के बाद बोले–क्यों बेटी–पूर्णा के मैके में कोई नहीं है? मैंने उससे नहीं पूछा कि शायद उसे कुछ दुःख हो।
प्रेमा–मैके में कौन है। मां-बाप पहले ही मर चुके थे, मामा ने विवाह कर दिया। मगर जब से विवाह हुआ; कभी झांका तक नहीं। ससुराल में भी सगा कोई नहीं है। पण्डितजी के दम से नाता था।
बदरीप्रसाद ने बिछावन की चादर बराबर करते हुए कहा–मैं सोच रहा हूं, पूर्णा को अपने ही घर में रखूं तो क्या हरज है? अकेली औरत कैसे रहेगी।
प्रेमा–होगा तो बहुत अच्छा, पर अम्मांजी मानें तब तो?
बदरी०–मानेंगी क्यों नहीं? पूर्णा तो इन्कार न करेगी?
प्रेमा–पूछूंगी। मैं समझती हूं, उन्हें इन्कार न होगा।
बदरी०–अच्छा मान लो, वह अपने ही घर में रहे, तो उसका खर्च बीस रुपये में चल जाएगा न?
प्रेमा ने आर्द्र नेत्रों से पिता की ओर देखकर कहा–बड़े मजे से। पण्डितजी ५० रु० ही तो पाते थे।
बदरीप्रसाद ने चिन्तित भाव से कहा–मेरे लिए बीस, पचास, साठ सब बराबर हैं, लेकिन मुझे अपनी जिन्दगी ही की तो नहीं सोचनी है। अगर, आज मैं न रहूं, तो कमला कौड़ी फोड़ कर न देगा; इसलिए कोई स्थायी बन्दोबस्त करना जाना चाहता हूं। अभी हाथ में रुपये नहीं है। नहीं तो कल ही चार हजार रुपये उनके नाम किसी अच्छे बैंक में रख देता। सूद से उसकी परवरिश होती रहती। यह शर्त कर देता कि मूल में से कुछ न दिया जाए।
|