उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पण्डितजी उबटन मलवाकर स्नान करने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहाया करते थे। तैराक भी अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराकों से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेंगे, पर हवा ऐसी धीमी-धीमी चल रही थी कि जी तैरने के लिए ललचा उठा। तुरन्त पानी में कूद पड़े और इधर-उधर किलोलें करने लगे। सहसा उन्हें बीच धार में कोई लाल चीज दिखाई दी। गौर से देखा तो कमल थे। सूर्य की किरणों में चमकते हुए वे ऐसे सुन्दर मालूम होते थे कि वसन्त कुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा; अगर ये मिल जाएं, तो पूर्णा के लिए झूमक बनाऊं। उसके हर्ष का अनुमान करके उनका हृदय नाच उठा। हृष्ट-पुष्ट आदमी थे। बीच धार तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूं। जवानी दिवानी होती है। यह न सोचा कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ूंगा, फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धार में पहुंच गए।
मगर वहां जाकर देखा तो फूल इतनी ही दूर और आगे थे। अब कुछ थकान मालूम होने लगी थी, किन्तु बीच में कोई रेत ऐसा न था कि जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गए। कभी हाथों से जोर मारते, कभी पैरों से जोर लगाते फूलों तक पहुंचे। पर, उस वक्त तक सारे अंग शिथिल हो गए थे। यहां तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा, तो हाथ न उठा सका। आखिर उनको दांतों में दबाया और लौटे। मगर, जब वहां से उन्होंने किनारे की तरफ देखा, तो ऐसा मालूम हुआ, मानों एक हजार कोस की मंजिल है। शरीर बिल्कुल अशक्त हो गया था और जल-प्रवाह भी प्रतिकूल था। उनकी हिम्मत छूट गई। हाथ-पांव ढीले पड़ गए। आस-पास कोई नाव या डोंगी न थी और न किनारे तक आवाज ही पहुंच सकती थी। समझ गए, यहीं जल-समाधि होगी। एक क्षण के लिए पूर्णा की याद आई। हाय! वह उनकी बाट देख रही होगी, उसे क्या मालूम कि वह अपनी जीवन-लीला समाप्त कर चुके। वसन्त कुमार ने एक बार फिर जोर मारा; पर हाथ-पाँव हिल न सके। तब उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। तट पर लोगों ने डूबते देखा। दो-चार आदमी पानी में कूदे, पर एक ही क्षण में वसन्त कुमार लहरों में समा गए। केवल कमल के फूल पानी पर तैरते रह गए, मानो उस जीवन का अन्त हो जाने के बाद उसकी अतृप्त लालसा अपनी रक्त-रञ्जित छटा दिखा रही हो।
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लाला बदरीप्रसाद की सज्जनता प्रसिद्ध थी। उनसे ठगकर तो कोई एक पैसा भी न ले सकता था; पर धर्म के विषय में वह बड़े ही उदार थे। स्वार्थियों से वह कोसों भागते थे; पर दीनों की सहायता करने में कभी न चूकते थे। फिर पूर्णा तो उनकी पड़ोसिन ही नहीं, ब्राह्मणी थी। उस पर उनकी पुत्री की सहेली। उसकी सहायता वह क्यों न करते? पूर्णा के पास हल्के दामों के दो-चार गहनों के सिवाय और क्या था। षोडशी के दिन उसने वे सब गहने लाकर लालाजी के सामने रख दिए. और सजल नेत्रों से बोली–मैं अब इन्हें रखकर क्या करूंगी...
बदरीप्रसाद ने करुण-कोमल स्वर में कहा–मैं इन्हें लेकर क्या करूंगा बेटी? तुम यह न समझो कि मैं धर्म या पुण्य समझकर यह काम कर रहा हूं। यह मेरा कर्त्तव्य है। इन गहनों को अपने पास रखो। कौन जाने किस वक्त इनकी जरूरत पड़े जब तक मैं जीता हूं, तुम्हें अपनी बेटी समझता रहूंगा। तुम्हें कोई तकलीफ न होगी।
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