उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
यह कहता हुआ कमला चला गया। उसी समय प्रेमा ने कमरे में कदम रखा उसकी पलकें भीगी हुई थीं, मानो अभी रोती रही हो। उसका कोमल गात ऐसा कृश हो गया था, मानो किसी हास्य की प्रतिध्वनि हो, मुख किसी वियोगिनी की पूर्वस्मृति की भांति मलिन और उदास था। उसने आते ही कहा दादाजी, आप जरा बाबू दाननाथ को बुलाकर समझा दें, वह क्यों जीजाजी पर झूठा आक्षेप करते फिरते हैं।
बदरीप्रसाद ने विस्मित होकर कहा–दाननाथ! वह भला क्यों अमृतराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मैत्री है, वैसी तो मैंने और कहीं नहीं देखी।
प्रेमा–विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर भैयाजी ही कह रहे हैं। वनिता-आश्रम खोलने का तो जीजाजी का बहुत दिनों से विचार था, कई बार मुझसे उसके विषय में बातें हो चुकी हैं। लेकिन बाबू दाननाथ अब कहते फिरते हैं कि वह इस बहाने से रुपए जमा करके जमींदारी लेना चाहते हैं!
बदरी०–कमला कहते थे?
प्रेमा–हां, वही तो कहते थे। दाननाथ ने द्वेष-वश कहा हो तो आश्चर्य ही क्या। आप जरा उन्हें बुलाकर पूछें।
बदरी०–कमला झूठ बोल रहा है, सरासर झूठ! दानू को मैं खूब जानता हूं। उसका-सा सज्जन बहुत कम मैंने देखा है। मुझे तो विश्वास है कि आज अमृतराय के हित के लिए प्राण देने का अवसर आ जाए, तो दानू शौक से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मुझसे जब मिलता है, बड़ी विनम्रता से चरण छू लेता है।
देवकी–कितना हंसमुख है। मैंने तो जब देखा, हंसते ही देखा। बिलकुल बालकों का स्वभाव है। उसकी माता रोया करती है कि मैं मर जाऊंगी, तो दानू को कौन खिलाकर सुलाएगा। दिन-भर भूखा बैठा रहेगा, पर खाना न मांगेगा और अगर कोई बुला-बुलाकर खिलाए, तो सारा दिन खाता रहेगा। बड़ा सरल स्वभाव है। अभिमान तो छू नहीं गया।
बदरी०–अबकी बार डॉक्टर हो जाएगा।
लाला बदरीप्रसाद उन आदमियों में थे, जो दुविधा में नहीं रहना चाहते थे, किसी-न-किसी निश्चय पर पहुंच जाना, उनके चित्त की शान्ति के लिए आवश्यक है। दाननाथ के पत्र का जिक्र करने का ऐसा अच्छा अवसर पाकर वह अपने लोभ का संवरण न कर सके बोले–यह देखो प्रेमा, दानू ने अभी-अभी यह पत्र भेजा है। मैं तुमसे इसकी चर्चा करने ही जा रहा था कि तुम खुद आ गईं।
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