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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरन्त ताड़ गई। उसका हृदय जोर से धड़कने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से पत्र ले लिया; पर कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ अमृतराय की है। उसकी आंखें भर आईं। लिफाफे पर यह लिपि देखकर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था! पर आज! वही लिपि उसकी आंखों में कांटों की भांति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बिच्छू की भांति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकालकर देखा–वही लिपि थी, वही चिर-परिचित, सुन्दर स्पष्ट लिपि, जो मानसिक शान्ति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ इन्कार। पर, यह पत्र अमृतराय की कलम से निकलेगा, इसकी सम्भावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनाएं सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रखी थी, एक दीर्घ शीतल विश्वास के रूप में निकल गई।  उसे ऐसा जान पड़ा, मानो उसके सम्पूर्ण अंग शिथिल हो गए हैं, मानो हृदय भी निस्पन्द हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख से ये शब्द निकल पड़े–आपकी जो इच्छा हो वह कीजिए, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी–जब कूएं में ही गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया! वह तुरन्त पत्र वहीं फेंक कर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी होकर फूट-फूट कर रोने लगी।

सन्ध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियां जागृत होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मण्डल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृतियों से आच्छन्न हो गया; पर इन असंख्य तारों से आकाश का अन्धकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?

वैशाख में प्रेमा का विवाह दाननाथ के साथ हो गया। बड़ी धूम-धाम हुई। सारे शहर के रईसों को निमन्त्रित किया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लुटाए। मगर दाननाथ की ओर से कोई तैयारी न थी। अमृतराय चन्दा करने के लिए बिहार की ओर चले गए थे और ताकीद कर गए थे कि धूम-धाम मत करना। दाननाथ उनकी इच्छा की अवहेलना कैसे करते।

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