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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


इधर पूर्णा के आने से सुमित्रा को मानों आंखें मिल गईं। उसके साथ बातें करने से सुमित्रा का जी ही न भरता। आधी-आधी रात तक बैठी, अपनी दुःख कथा सुनाया करती। जीवन में उसका कोई संगी न था। पति की निष्ठुरता नित्य ही उसके हृदय में चुभा करती थी। इस निष्ठुरता का कारण क्या है, यह समस्या उससे न हल होती थी। वह बहुत सुन्दर न थी, फिर भी कोई उसे रूपहीन न कह सकता था। बनाव-सिंगार का तो उसे मरज-सा हो गया था। पति के हृदय को पाने के लिए वह नित नया सिंगार करती थी और इस अभीष्ट के पूरे न होने से उसके हृदय में ज्वाला सी दहकती रहती थी। घी के छींटों से भभकना तो ज्वाला के लिए स्वाभाविक ही था, वह पानी के छींटों से भभकती थी। कमलाप्रसाद जब उससे अपना प्रेम जताते, तो उसके जी में आता, छाती में छुरी मार लूं। घाव में यों ही क्या कम पीड़ा होती है कि कोई उस पर नमक छिड़के। आज से तीन साल पहले सुमित्रा ने कमला को पाकर अपने को धन्य माना था। दो-तीन महीने उसके दिन सुख से कटे; लेकिन ज्यों-ज्यों दोनों की प्रकृति का विरोध प्रकट होने लगा, दोनों एक दूसरे से खिंचने लगे। सुमित्रा उदार थी, कमला परले सिरे का कृपण। वह पैसे को ठीकरी समझती थी; कमला कौड़ियों को दांत से पकड़ता था। सुमित्रा साधारण भिक्षुक को भिक्षा देने उठती तो इतना दे देती कि वह चुटकी की चरम सीमा का अतिक्रमण कर जाता था। उसके मैके से एक बार एक ब्राह्मणी कोई शुभ समाचार लाई थी। उसे उसने नई रेशमी साड़ी उठाकर दे दी! उधर कमला का यह हाल था कि भिक्षुक की आवाज सुनते ही गरज उठते थे, रूल उठाकर मारने दौड़ते थे, दो-चार को तो पीट ही दिया था, यहां तक कि एक बार द्वार पर आकर किसी भिक्षुक की, यदि कमला से मुठभेड़ हो गई, तो उसे दूसरी बार आने का साहस न होता था। सुमित्रा में नम्रता, विनय और दया थी; कमला में घमंड, उच्छश्रृंखलता और स्वार्थ। एक वृक्ष का जीव था, दूसरा पृथ्वी पर रेंगने वाला। उनमें मेल कैसे होता। धर्म का ज्ञान, जो दाम्पत्य-जीवन का सुख-मूल है, दोनों में किसी को न था।

पूर्णा के आने से कमला और सुमित्रा एक दूसरे से और भी पृथक हो गए। सुमित्रा के हृदय पर लदा हुआ बोझा उठ-सा गया। कहां तो वह दिन-के-दिन विरक्तावस्था में खाट पर पड़ी रहती, कहां अब वह हरदम हंसती–बोलती रहती थी। कमला की उसने परवाह ही करनी छोड़ दी। वह कब घर में आता है, कब जाता है, कब सोता है, इसकी उसे जरा भी फिक्र न रही। कमलाप्रसाद लम्पट न था। सबकी यही धारणा थी कि उसमें चाहे और कितने ही दुर्गुण हों, पर यह ऐब न था। किसी स्त्री पर ताक-झांक करते उसे किसी ने न देखा था। फिर पूर्णा के रूप ने उसे कैसे मोहित कर लिया, यह रहस्य कौन समझ सकता है। कदाचित पूर्णा की सरलता, दीनता और आश्रय-हीनता ने उसकी कुप्रवत्ति को जगा दिया। उसकी कृपणता और कायरता ही उसके सदाचार का आधार थी। विलासिता महंगी वस्तु है। जेब के रुपए खर्च करके भी किसी आफत में फंस जाने की जहां प्रतिक्षण संभावना हो, ऐसे काम में कमलाप्रसाद जैसा चतुर आदमी न पड़ सकता था। पूर्णा के विषय में उसे कोई भय न था। वह इतनी सरल थी कि उसे काबू में लाने के लिए किसी बड़े साधना की जरूरत न थी।

और फिर यहां तो किसी का भय नहीं; फंसने का भय, न पिट जाने की शंका। अपने घर लाकर उसने शंकाओं को निरस्त्र कर दिया था। उसने समझा था, अब मार्ग में कोई बाधा नहीं रही। केवल घरवालों की आंख बचा लेना काफी था, और यह कुछ कठिन न था; किन्तु यहां भी एक बाधा खड़ी हो गई और वह सुमित्रा थी! सुमित्रा पूर्णा को एक क्षण के लिए भी न छोड़ती, दोनों भोजन करने साथ-साथ जाती छत पर देखो तो साथ-साथ, कमरे में देखो तो साथ, रात को साथ, दिन को साथ। कभी दोनों साथ ही साथ सो जातीं। कमला जब शयनागार में जाकर सुमित्रा की राह देखता-देखता सो जाता, तो न जाने कब वह उसके पास आ जाती। पूर्णा से एकान्त में कोई बात करने को उसे अवसर न मिलता था। वह मन में सुमित्रा पर झुंझलाकर रह जाता। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। रात को जब सुमित्रा आई, तो उसने कहा–तुम रात-दिन पूर्णा के पास क्यों बैठी रहती हो? वह अपने मन में समझती होगी कि यह तो अच्छी बला गले पड़ी। ऐसी तो कोई बड़ी समझदार भी नहीं हो कि तुम्हारी बातों में उसे आनन्द आता हो। तुम्हारी बेवकूफी पर हंसती होगी।

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