उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कमला०–क्यों, रेशमी साड़ी तो कोई छूत की चीज नहीं!
सुमित्रा–छूत की चीज नहीं; पर शौक की चीज तो है। सबसे पहले तो तुम्हारी पूज्य माताजी ही छाती पीटने लगेंगी।
कमला०–मगर अब तो मैं लौटाने न जाऊंगा। बजाज समझेगा दाम सुन के डर गए।
सुमित्रा–बहुत अच्छी हो, तो प्रेमा के पास भेज दूं। तुम्हारी बेसाही हुई साड़ी पाकर अपना भाग्य सराहेगी। मालूम होता है, आजकल कहीं कोई रकम मुफ्त हाथ आ गई है। सच कहना, किसकी गर्दन रेती है। गांठ के रुपए खर्च करके तुम ऐसी फिजूल की चीजें कभी न लाए होगे।
कमला ने आग्नेय-दृष्टि से सुमित्रा की ओर देखकर कहा–तुम्हारे बाप की तिजोरी तोड़ी है, और भला कहां डाका मारने जाता।
सुमित्रा–मांगते तो वह यों ही दे देते, तिजोरी तोड़ने की नौबत न आती। मगर स्वभाव को क्या करो।
कमला ने पूर्णा की ओर मुंह करके कहा–सुनती हो पूर्णा इनकी बात। पति से बातें करने का यही ढंग है! तुम भी इन्हें नहीं समझातीं, और कुछ नहीं; तो आदमी सीधे मुंह बात तो करे। जब से तुम आई हो, मिजाज और भी आसमान पर चढ़ गया है।
पूर्णा को सुमित्रा की कठोरता बुरी मालूम हो रही थी। एकान्त में कमलाप्रसाद सुमित्रा को जलाते हों; पर इस समय तो सुमित्रा ही उन्हें जला रही थी। उसे भय हुआ कि कहीं कमला मुझसे नाराज हो गए, तो मुझे इस घर से निकलना पड़ेगा। कमला को अप्रसन्न करके यहां एक दिन भी निर्वाह नहीं हो सकता, यह वह जानती थी। इसलिए वह सुमित्रा को समझाती रहती थी। बोली–मैं तो बराबर समझाया करती हूं, बाबूजी। पूछ लीजिए झूठ कहती हूं?
सुमित्रा ने तीव्र स्वर में कहा–इनके आने से मेरा मिजाज क्यों आसमान पर चढ़ गया, जरा यह भी बता दो। मुझे तो इन्होंने राजसिंहासन पर नहीं बैठा दिया। हां तब अकेली पड़ी रहती थी, अब घड़ी-दो-घड़ी इनके साथ बैठ लेती हूं; क्या तुमसे इतना भी नहीं देखा जाता!
कमला०–तुम व्यर्थ बात बढ़ाती हो सुमित्रा! मैं यह कब कहता हूं कि तुम इनके साथ उठना-बैठना छोड़ दो, मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही।
सुमित्रा–और यह कहने का आशय ही क्या कि जब से यह आई हैं, तुम्हारा मिजाज आसमान पर चढ़ गया है।
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