उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कमला उसकी घबराहट देखकर पलंग पर जा बैठा और आश्वासन देता हुआ बोला–डरो मत पूर्णा, आराम से बैठो; मैं भी आदमी हूं, कोई काटू नहीं हूं। आखिर मुझसे क्यों इतनी भागी-भागी फिरती हो? मुझसे दो बात करना भी तुम्हें नहीं भाता। तुमने उस दिन साड़ी लौटा दी, जानती हो मुझे कितना दुःख हुआ?
‘तो और क्या करती? सुमित्रा अपने दिल में क्या सोचती?
कमला ने यह बात न सुनी। उनकी आतुर दृष्टि पूर्णा के रक्तहीन मुखंडल पर जमी हुई थी। उसके हृदय में कामवासना की प्रचण्ड ज्वाला दहक उठी, उसकी सारी चेष्टा, सारी चेतनता, सारी प्रवृत्ति एक विचित्र हिंसा के भाव से आन्दोलित हो उठी। हिंसक पशुओं की आंखों में शिकार करते समय जो स्फूर्ति झलक उठती है, कुछ वैसी ही स्फूर्ति कमला की आंखों में झलक उठी। वह पलंग से उठा; और दोनों हाथ खोले हुए पूर्णा की ओर बढ़ा। अब तक पूर्णा भय से कांप रही थी। कमला को अपनी ओर आते देखकर उसने गर्दन उठाकर आग्नेय नेत्रों से उसकी ओर देखा। उसकी दृष्टि में भीषण संकट तथा भय था; मानो वह कह रही थी–खबरदार! इधर एक जौ-भर बढ़े, तो हम दोनों में से एक का अन्त हो जाएगा। इस समय पूर्णा को अपने हृदय में एक असीम शक्ति का अनुभव हो रहा था, जो सारे संसार की सेनाओं को अपने पैरों तले कुचल सकती थी। उसकी आंखों की वह प्रदीप्ति ज्वाला, उसकी वह बंधी हुई मुट्ठियां और तनी हुई गर्दन देखकर कमला ठिठक गया, होश आ गए, एक कदम भी आगे बढ़ने की उसे हिम्मत न पड़ी। खड़े-खड़े बोला–यह रूप मत धारण करो, पूर्णा! मैं जानता हूं कि प्रेम-जैसी वस्तु छल-बल से नहीं मिल सकती, न मैं इस इरादे से तुम्हारे निकट आ रहा था। मैं तो केवल तुम्हारी कृपा-दृष्टि का अभिलाषी हूं। जिस दिन से तुम्हारी मधुर-छवि देखी है, उसी दिन से तुम्हारी उपासना कर रहा हूं। पाषाण-प्रतिमाओं की उपासना पत्र-पुष्प से होती है; किन्तु तुम्हारी उपासना मैं आंसुओं से करता हूं। मैं झूठ नहीं कहता पूर्णा! अगर इस समय तुम्हारा संकेत पाऊं, तो अपने प्राणों को भी तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर दूं। यही मेरी परम अभिलाषा है। मैं बहुत चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं; लेकिन मन किसी तरह नहीं मानता। अवश्य ही पूर्व जन्म में तुमसे मेरा कोई घनिष्ठ सम्बन्ध रहा होगा, कदाचित इस जन्म में भी मेरी यह लालसा अतृप्त रही होगी। तुम्हारे चरणों पर गिरकर एक बार रो लेने की इच्छा से ही मैं तुम्हें लाया। बस, यह समझ लो कि मेरा जीवन तुम्हारी दया पर निर्भर है। अगर तुम्हारी आंखें मेरी तरफ से यों ही फिरी रहीं, ते देख लेना, एक दिन कमलाप्रसाद की लाश या तो इसी कमरे में तड़पती हुई पाओगी, या गंगा तट पर; मेरा यह निश्चय है।
पूर्णा का क्रोध शान्त हुआ। कांपते हुए स्वर में बोली–बाबूजी, आप मुझसे कैसी बातें कर रहे हैं, आपको लज्जा नहीं आती।
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