उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
कमला चारपाई पर बैठता हुआ बोला–नहीं पूर्णा, मुझे तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं दीखती। अपनी इष्ट-देवी की उपासना करना क्या लज्जा की बात है? प्रेम ईश्वरीय प्रेरणा है, ईश्वरीय संदेश है। प्रेम के संसार में आदमी की बनायी सामाजिक व्यवस्थाओं का कोई मूल्य नहीं। विवाह समाज के संगठन की केवल आयोजना है। जात-पात केवल भिन्न-भिन्न काम करने वाले प्राणियों का समूह है। काल के कुचक्र ने तुम्हें एक ऐसी अवस्था में डाल दिया है, जिसमें प्रेम-सुख की कल्पना करना ही पाप समझा जाता है; लेकिन सोचो तो समाज का यह कितना बड़ा अन्याय है। क्या ईश्वर ने तुम्हें इसीलिए बनाया है कि दो-तीन साल प्रेम का सुख भोगने के बाद आजीवन वैधव्य की कठोर यातना सहती रहो। कभी नहीं; ईश्वर इतना अन्यायी, इतना क्रूर नहीं हो सकता। वसंतकुमार जी मेरे परम मित्र थे। आज भी उनकी याद आती है, तो आंखों में आंसू भर आते हैं। इस समय भी मैं उन्हें अपने सामने खड़ा देखता हूं। तुमसे उन्हें बहुत प्रेम था। तुम्हारे सिर में जरा भी पीड़ा होती थी, तो बेचारे विकल हो जाते थे। वह तुम्हें सुख में मढ़ देना चाहते थे, चाहते थे कि तुम्हें हवा का झोंका भी न लगे। उन्होंने अपना जीवन ही तुम्हारे लिए अर्पण कर दिया था। रोओ मत पूर्णा, तुम्हें जरा उदास देखकर उनका कलेजा फट जाता था, तुम्हें रोते देखकर उनकी आत्मा को कितना दुःख होगा, फिर यह आज कोई नयी बात नहीं इधर महीने से तुम्हें रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है और निर्दयी समाज चाहता है कि तुम जीवनपर्यन्त यों ही रोती रहो, तुम्हारे मुख पर हास्य की एक रेखा भी न दिखाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा; तुम दुष्टा हो जाओगी। उस आत्मा को तुम्हारी यह व्यर्थ की साधना देखकर कितना दुःख होता होगा, इसकी कल्पना तुम कर सकती हो? ईश्वर तुम्हें दुःख के इस अपार सागर में डूबने नहीं देना चाहते। वह तुम्हें उबारना चाहते हैं, तुम्हें जीवन के आनन्द में मग्न कर देना चाहते हैं। यदि उनकी प्रेरणा न होती, तो मुझ जैसे दुर्बल मनुष्य के हृदय में प्रेम का उदय क्यों होता? जिसने किसी स्त्री की ओर कभी आंख उठाकर नहीं देखा, वह आज तुमसे प्रेम की भिक्षा क्यों मांगता होता? मुझे तो यह दैव की स्पष्ट प्रेरणा मालूम हो रही है।
पूर्णा अब तक द्वार से चिपकी खड़ी थी। अब द्वार से हटकर वह फर्श पर बैठ गई। कमलाप्रसाद पर उसे पहले जो सन्देह हुआ था, वह अब मिटता जाता था। वह तन्मय होकर उनकी बातें सुन रही थी।
कमलाप्रसाद उसे फर्श पर बैठते हुए देखकर उठा; और उसका हाथ पकड़कर कुर्सी पर बिठाने की चेष्टा करते हुए बोला–नहीं-नहीं पूर्णा, यह नहीं हो सकता फिर मैं भी जमीन पर बैठूंगा! आखिर इस कुर्सी पर बैठने में तुम्हें क्या आपत्ति है?
पूर्णा ने अपना हाथ नहीं छुड़ाया, कमला से उसे झिझक भी नहीं हुई। यह कहती हुई कि बाबूजी आप बड़ी जिद्द करते हैं, कोई मुझे यहां इस तरह बैठे देख ले तो, क्या हो–वह कुर्सी पर बैठ गयी।
कमला का चेहरा खिल उठा, बोला–अगर कोई कुछ कहे, तो उसकी मूर्खता है सुमित्रा को यहां बैठे देखकर कोई कुछ न कहेगा; तुम्हें बैठे देखकर उसके हाथ आप ही छाती पर पहुंच जायेंगे। यह आदमी के रचे हुए स्वांग हैं और मैं इन्हें कुछ नहीं समझता। जहां देखो ढकोसला, जहां देखो पाखण्ड। हमारा सारा जीवन पाखण्ड हो गया है। मैं इस पाखण्ड का अन्त कर दूंगा। पूर्णा, मैं तुमसे सच कहता हूं, मैंने आज तक किसी स्त्री की ओर आंख नहीं उठायी। मेरी निगाह में कोई जंचती ही न थी, लेकिन तुम्हें देखते ही मेरे हृदय में एक विचित्र आन्दोलन होने लगा। मैं उसी वक्त समझ गया कि यह ईश्वर की प्रेरणा है। यदि ईश्वर की इच्छा न होती तो तुम इस घर में आती ही क्यों? इस वक्त तुम्हारा यहां आना भी ईश्वरीय प्रेरणा है, इसमें लेशमात्र भी सन्देह न समझना। एक-से-एक सुन्दरियां मैंने देखीं; मगर इस चन्द्र में हृदय को खींचनेवाली जो शक्ति है, वह किसी में नहीं पायी।
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