उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
दाननाथ–खूब! उन रुपयों से आप पहाड़ों की हवा खाइयेगा! अपने घर की जमा लुटाकर अब दूसरों के सामने हाथ फैलाते फिरोगे?
अमृतराय–तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से? मैं चोरी करके लाऊंगा, आपसे कोई मतलब नहीं।
दाननाथ–जी, तो मुझे क्षमा कीजिए, आप ही पहाड़ों की सैर कीजिए। तुमने व्यर्थ इतने रुपये नष्ट कर दिये। सौ-पचास अनाथों को तुमने आश्रय दे ही दिया, तो कौन बड़ा उपकार हुआ जाता है। हां, तुम्हारी लीडरी की अभिलाषा पूरी हो जाएगी।
यह कहते-कहते वह उठ खड़े हुए। अमृतराय उस विषय में दाननाथ के विचारों से परिचित थे।
दाननाथ को ‘उपकार’ शब्द से घृणा थी। ‘सेवा’ को भी वह इतना ही घृणित समझते थे। उन्हें सेवा और उपकार के परदे में केवल अहंकार और ख्याति-प्रेम छिपा मालूम होता था। अमृतराय ने कुछ उत्तर न दिया। दाननाथ कोई उत्तर सुनने को तैयार भी न थे, उन्हें घर जाने की जल्दी थी, अतएव उन्होंने भी उठकर हाथ बढ़ा दिया। दाननाथ ने हाथ मिलाया और विदा हो गये।
माघ का महीना था और अंधेरा पाख। उस पर कुछ बादल भी छाया था। सड़क पर लालटेन जल रही थी। दाननाथ को इस समय कांपते हुए साइकिल पर चलना नागवार मालूम हो रहा था। मोटरें और तांगे सड़क पर दौड़ रहे थे। क्या उन्हें अपने जीवन में सवारी रखना नसीब ही न होगा? उन्हें ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी सदैव यही दशा रही। जब पढ़ते थे, तब भी तो आखिर भोजन करते ही थे, कपड़े पहनते ही थे, अब खाने-पहनने के सिवा वह और क्या कर लेते हैं। कौन-सी जायदाद खरीद ली? कौन-सा विलास का सामान जमाकर लिया; और उस पर आप फरमाते हैं–तुम तैयार हो गये। बाप की कमाई है, मजे से उड़ाते हैं, नहीं तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता–उपकार और सेवा सब धरी रह जाती।
घर पहुंचे तो प्रेमा ने पूछा–आज बड़ी देर लगायी, कहां चले गये थे? देर करके आना हो तो भोजन करके जाया करो।
दाननाथ ने घड़ी देखते हुए कहा–अभी तो बहुत देर नहीं हुई, नौ भी नहीं बजे। जरा अमृतराय के यहां चला गया था। अजीब आदमी है। जो बात सूझती है, बेतुकी। अपने पास जितने रुपये थे, वह तो ईंट-पत्थर में उड़ा दिये। अब चन्दे की फिक्र सवार है। अब और लीडरों की तरह इनकी जिन्दगी भी चन्दों पर बसर होगी।
प्रेमा ने इसका कुछ उत्तर न दिया। हां में हां मिलाना न चाहती थी; विरोध करने का साहस न था। बोली–अच्छा चलकर भोजन तो कर लो, महाराजिन कल से भुनभुना रही है। कि बड़े देर हो जाती है। कोई उसके घर का ताला तोड़ दे, तो कहीं की न रहे।
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