उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 262 पाठक हैं |
‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
अमृतराय–कोई अंतर है?
दाननाथ–दुबला होता जाता हूं।
अमृतराय–झूठ न बोलो यार, मुझे तो याद ही नहीं आता कि तुम इतने तैयार कभी थे। सच कहता हूं; मैं तो तुम्हें बधाई देने जा रहा था। मगर डरता था कि तुम समझोगे यह नजर लगा रहा है।
दाननाथ–मुझे तो प्रेमा यही कहती है कि तुम दुबले होते जा रहे हो। और मैं भी समझता हूं कि वह ठीक कहती है। पहले अकेला और निर्द्वन्द्व था; अब गृहस्थी की चिन्ता सवार है। दुबला न हूंगा, तो क्या मोटा होऊंगा?
अमृतराय अपनी हंसी न रोक सके। दाननाथ को उन्होंने इतना मन्द-बुद्धि कभी न समझा था। दाननाथ ने समझा–यह मेरी हंसी उड़ाना चाहते हैं। मैं मोटा हूं, या दुबला, उनसे मतलब? यह कौन होते हैं पूछनेवाले? आप शायद यह सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रेमा की स्नेहमय सेवा ने मुझे मोटा कर दिया। यही सही, तो आपको क्यों जलन होती है क्या अब भी आपको उससे कुछ नाता है। मैले बर्तन में साफ पानी भी मैला हो जाता है। द्वेष से भरा हृदय पवित्र आमोद भी नहीं सह सकता। यह वही दाननाथ हैं, जो दूसरों को चुटकियों में उड़ाया करते थे, अच्छे-अच्छों का काफिया तंग कर देते थे। आज सारी बुद्धि घास खाने चली गयी थी। यह समझ रहे थे कि यह महाशय मुझे भुलावा देकर प्रेमा की टोह लेना चाहते हैं। मुझी से उड़ने चले हैं। अभी कुछ दिन पढ़ो! तब मेरे मुंह आना। बोले–तुम हंसे क्यों? क्या मैंने हंसी की बात कही है।
अमृतराय–नहीं भाई, मैं तुम्हारे ऊपर नहीं हंसा। हंसा इस बात पर कि तुमने अपनी आंखों और बुद्धि से काम लेना छोड़ दिया है।
दाननाथ–आपकी आंखों को धोखा हुआ है।
अमृतराय–खैर, मुझी को धोखा हुआ होगा, कभी-कभी आंखों को धोखा हो जाया करता है! मगर तुम यों ही दुर्बल होते चले गये, तो बड़ी मुश्किल का सामना करना होगा। किसी डाक्टर को दिखाइए। अगर पहाड़ पर चलना चाहो, तो मैं भी साथ चलने को तैयार हूं।
दाननाथ–पहाड़ पर जाने में रुपये लगते हैं; यहां कौड़ी कफन को भी नहीं है।
अमृतराय–रुपये मैं दूंगा, तुम चलने का निश्चय कर लो। दो महीने और हैं, एप्रिल में चल दें।
दाननाथ–तुम्हारे पास भी तो रुपये नहीं हैं, ईंट-पत्थर में उड़ा दिये।
अमृतराय–पहाड़ों पर सूबे-भर के राजे-रईस आते हैं, उनसे वसूल करेंगे।
|