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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ मोटे न हो गये हो, कुछ हरे अवश्य थे। चेहरे पर कुछ सुर्खी थी। देह भी कुछ चिकनी हो गयी थी। मगर यह कहने की बात थी। माताओं को तो अपने लड़के सदैव ही दुबले मालूम होते हैं, लेकिन दाननाथ भी इस विषय में कुछ वहमी जीव थे। उन्हें हमेशा किसी-न-किसी बीमारी की शिकायत बनी रहती थी। कभी खाना नहीं हजम हुआ, खट्टी डकारें आ रही हैं, कभी सिर में चक्कर आ रहा है, कभी पैर का तलवा जल रहा है। इस तरफ से शिकायतें बढ़ गयी थीं। कहीं बाहर जाते, तो उन्हें कोई शिकायत न होती, क्योंकि कोई सुननेवाला न होता। पहले अकेले मां को सुनाते थे। अब एक और सुनने वाला मिल गया था। इस दशा में यदि कोई उन्हें मोटा कहे, तो यह उनका अन्याय था। प्रेमा को भी उनकी खातिर करनी पड़ती थी। इस वक्त दाननाथ को खुश करने का उसे अच्छा अवसर मिल गया। बोली–उनकी आंखों में सनीचर है। दीदी बेचारी जरा मोटी थीं। रोज उन्हें ताना दिया करते। घी मत खाओ, दूध मत पियो, परहेज करा-करा के बेचारी को मार डाला है। मैं वहां होती तो लाला की खबर लेती।

माता–अच्छी देह है उसकी।

दाननाथ–अच्छी नहीं, पत्थर है। बलगम भरा हुआ है। महीने भर कसरत छोड़ दें, तो उठना-बैठना दूभर हो जाए।

प्रेमा–मोटा आदमी तो मुझे नहीं अच्छा लगता है। देह सुडौल और भरी हुई हो। मोटी थल-थल देह किस काम की?

दाननाथ–मेरे साथ खेलते थे, तो रुला-रुला मारता था।

भोजन करने के बाद दाननाथ बड़ी देर कर प्रेमा की बातों पर विचार करते रहे। प्रेमा ने पीछे से घाव पर मरहम रखनेवाली बातें करके उन्हें कुछ ठंडा कर दिया था। उन्हें सब मालूम हुआ कि प्रेमा ने जो कुछ कहा, उसके सिवा वह और कुछ कह ही न सकती थी। उन्होंने कमलाप्रसाद के मुंह से जो बातें सुनी थीं, वही कह डाली थीं। खुद उन बातों को न तौला, न परखा। कमलाप्रसाद की बातों पर उनको विश्वास क्यों आ गया? यह उनकी कमजोरी थी। ईर्ष्या कानों की पुतली होती है। प्रतियोगी के विषय में वह सब कुछ सुनने को तैयार रहती है। अब दाननाथ को सूझी कि बहुत संभव है, कमला ने वे बातें मन से गढ़ी हों यही बात है। अमृतराय इतने छिछोरे, ऐसे दुर्बल कभी न थे। प्रेमा के साहसिक प्रतिवाद ने उस नशे को और भी बढ़ा दिया, जो उन पर पहले ही सवार था। प्रेमा ज्योंही भोजन करके लौटी, उससे क्षमा मांगने लगे–तुम मुझसे अप्रसन्न हो गयी क्या प्रिये? प्रेमा ने मुस्कराकर कहा–मैं? भला तुमने मेरा क्या बिगाड़ा था? हां, मैंने बेहूदी बातें बक डाली थीं। मैं तो खुद तुमसे क्षमा मांगने आयी हूं।

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