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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


लेकिन दाननाथ जहां विरोधी स्वभाव के मनुष्य थे, वहां कुछ दुराग्रही भी थे। जिस मनुष्य के पीछे उनका अपनी ही पत्नी के हाथों इतना घोर अपमान हुआ, उसे वह सस्ते में नहीं छोड़ सकते। सारा संसार अमृतराय का यश गाता, उन्हें कोई परवाह न थी, नहीं तो वह भी उस स्वर में अपना स्वर मिला सकते थे, वह भी करतल-ध्वनि कर सकते थे; पर उनकी पत्नी अमृतराय के प्रति इतनी श्रद्धा रखे और केवल हृदय में न रख कर उसकी दुहाई देती फिरे; जरा भी चिन्ता न करे कि इसका पति पर क्या प्रभाव होगा। यह स्थिति दुस्सह थी। अमृतराय अगर बोल सकते हैं, तो दाननाथ भी बोलने का अभ्यास करेंगे और अमृतराय का गर्व मर्दन कर देंगे, उसके साथ ही प्रेमा का भी। वह प्रेमा को दिखा देंगे कि जिन गुणों के लिए तू अमृतराय को पूज्य समझती है, वे गुण मुझमें भी हैं; और अधिक मात्रा में।

इस भांति ऐसे दो मित्रों में विद्वेष का सूत्रपात हुआ जो

बचपन से अभिन्न थे। वह दो आदमी, जिनकी मैत्री की उपमा दी जाती थी, काल की विचित्र गति से, दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में अवतरित हुए। एक सप्ताह तक दाननाथ कालेज में न गये। धर्म की रक्षा पर एक हिला देनेलाली वक्तृता तैयार करते रहे। एकान्त में सामने आईना रखकर, कई बार सम्पूर्ण व्याख्यान दे डाला। व्याख्यान देते हुए अपनी वाणी के प्रवाह पर उन्हें स्वयं आश्चर्य होता था। सातवें दिन शहर में नोटिस बंट गया–सनातन घर्म पर आघात इस विषय पर महाशय दाननाथ का टाउन हाल में व्याख्यान होगा। लाला बदरीप्रसाद सभापति का आसन सुशोभित करेंगे।

प्रेमा ने पूछा–क्या आज तुम्हारा व्याख्यान है? तुम तो पहले कभी नहीं बोले।

दाननाथ ने हंसकर कहा–हां, आज परीक्षा है। आशा तो है कि स्पीच बुरी न होगी।

प्रेमा–मुझे तो तुमने सुनायी ही नहीं। मैं भी जाऊंगी। देखूं तुम कैसा बोलते हो?

दाननाथ–नहीं प्रिये, तुम वहां रहोगी, तो शायद न बोल सकूंगा। तुम्हें देख-देखकर मुझे झेंप होगी। मैंने ऐसी कितनी ही बातें यहां लिखी हैं, जिनका मैं कभी पालन नहीं करता। स्पीच सुनकर लोग समझेंगे, धर्म का ऐसा रक्षक आज तक पैदा ही नहीं हुआ। तुम्हारे सामने अपने धर्म का स्वांग रचते मुझे शर्म आयेगी। दो-एक बार बोलने के बाद जब मैं गप हांकने और देवता बनने में अभ्यस्त हो जाऊंगा, तो स्वयं तुम्हें ले चला करूंगा।

प्रेमा–लालाजी ने तुम्हें आखिर अपनी ओर घसीट ही लिया?

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