उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
प्रेमा ने न माना। दाननाथ को खिलाकर ही छोड़ा, तब खुद खाया। दाननाथ आज बहुत प्रसन्न थे। जिस आनंद की–जिस शंका-रहित आनंद की उन्होंने कल्पना की थी, उसका आज कुछ आभास हो रहा था। उनका दिल कह रहा था–मैं व्यर्थ ही इस पर शंका करता हूं। प्रेमा मेरी है अवश्य मेरी है। अमृतराय के विरुद्ध आज मैंने इतनी बातें कीं और फिर भी कहीं तीवर नहीं मैला हुआ। आज आठ महीनों के बाद दाननाथ को जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हुआ।
प्रेमा ने पूछा–क्या सोचते हो?
दान०–सोचता हूं, मुझ-सा भाग्यवान संसार में दूसरा कौन होगा?
प्रेमा–मैं तो हूं।
दान०–तुम देवी हो।
प्रेमा–और तुम मेरे प्राणेश्वर हो।
छः दिन बीत गए। कमलाप्रसाद और उनके मित्र-वृन्द रोज आते और शहरों की खबरें सुना जाते। किन-किन रईसों को तोड़ा गया, किन-किन अधिकारियों को फांसा गया, किन-किन मोहल्लों पर धावा हुआ, किस-किस कचहरी, किस-किस दफ्तर पर चढ़ाई हुई, यह सारी रिपोर्ट दाननाथ को सुनाई जाती। आज यह भी मालूम हो गया कि साहब बहादुर ने अमृतराय को जमीन देने से इन्कार कर दिया। ईंट पत्थर अपने घर में भर रखे हैं। बस कालेजों के थोड़े से विद्यार्थी रह गए हैं, सो उनके लिए क्या हो सकता है? दाननाथ इन खबरों को प्रेमा से छिपाना चाहते थे; पर कमलाप्रसाद को कब चैन आता था। वह चलते वक्त संक्षिप्त रिपोर्ट उसे भी सुना देते।
सातवें दिन दोपहर को कमलाप्रसाद अपने मेल के और कितने ही आदमियों के साथ आए और बोले–चलो जरा बाहर का एक चक्कर लगा आएं।
दाननाथ ने उदासीन भाव से कहा–मुझे ले जाकर क्या कीजिएगा आप लोग तो हैं ही।
कमला०–अजी नहीं, जरा चलकर रंग तो देखो, एक हजार आदमी ऐसे तैयार रखे हैं, जो अमृतराय का व्याख्यान सुनने के बहाने जाएगे, और इतना कोलाहल मचाएंगे कि लाला साहब स्पीच न दे सकेंगे। टांय-टांय फिस हो के रह जाएगा। दो-तीन सौ आदमियों को सिखा रखा हैं कि एक-एक पैसा चन्दा देकर चले आएं। जरा चलकर उन सब की बातें तो सुनो!
दान०–अभी मेरा व्याख्यान तैयार नहीं हुआ। उधर गया, तो फिर अधूरा ही रह जाएगा।
कमला०–वाह! वाह! इतने दिनों तक क्या करते रहे भले आदमी। अच्छा जल्दी से लिख लिखा लो।
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