उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
प्रेमा ने कहा–बड़ी जल्दी लौटे; अभी ग्यारह ही तो बजे हैं!
दान०–क्या कहूं प्रिये तुम्हारे भाई साहब पकड़ ले गए।
प्रेमा ने तिनककर कहा–झूठ मत बोलो, भाई साहब पकड़ ले गए। उन्होंने कहा होगा, चलो जी जरा सिनेमा देख आए, तुमने एक बार तो नहीं की होगी, फिर चुपके से चले गए होगे। जाने तो थे ही, लौंडी बैठी रहेगी।
दान०–हां, कसूर मेरा ही है, मैं न जाता, तो वह मुझे गोद में न ले जाते, परन्तु मैं शील न तोड़ सका।
प्रेमा–जी, ऐसे ही बड़े शीलवान तो हैं आप, यह क्यों नहीं कहते कि वहां की बहार देखने को जी ललचा उठा।
दान०–जो चाहो कह लो, मगर मुझे पर अन्याय कर रही हो। मैं कैद से छूटकर भागा हूं! बस इतना ही समझ लो, अम्मा जी भी बैठी हैं?
प्रेमा–उन्हें तो मैंने भोजन करके सुला दिया। इस वक्त जागती होतीं, तो तुमसे डण्डों से बातें करतीं। सारी शरारत भूल जाते।
दान०–तुमने भी क्यों न भोजन कर लिया?
प्रेमा–सिखा रहे हो, तो वह भी सीख लूंगी। भैया से मेल हुआ है, तो मेरी दशा भी भाभी की-सी होकर रहेगी।
दाननाथ इस आग्रहमय अनुराग से गद्गद हो गए। प्रेमा को गले लगाकर कहा–नहीं प्रिये, मैं वादा करता हूं कि अब तुम्हें इस शिकायत का अवसर कभी न दूंगा। चलकर भोजन कर लो।
प्रेमा–और तुम?
दान०–मैं तो भोजन कर आया।
प्रेमा–तो मैं भी कर चुकी।
दान०–देखो प्रेमा, दिक न करो। मैं सच कहता हूं, खूब छककर खा आया हूं।
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