उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
माता ने पूछा–कहां जाएगी बेटी?
प्रेमा–जरा बाबू अमृतराय के घर तक जाऊंगी अम्माजी। मुझे भय है कि आज अवश्य फसाद होगा। उनको मना कर दूं कि जलसे में न जाएं।
माता–बड़ी अच्छी बात है बेटी। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। मेरी बात वह न टालेगा। जब नन्हा-सा था, तभी से मेरे घर आता-जाता था। न जाने ऐसी क्या बात पैदा हो गई कि इन दोनों में ऐसी अनबन हो गई। बहू, मैंने दो भाइयों में भी ऐसा प्रेम नहीं देखा।
प्रेमा–यह सब भैया का पढ़ाया हुआ पाठ है। उन्हें आरम्भ से बाबू अमृतराय से चिढ़ है। उनका विचित्र स्वभाव है। उनसे बढ़कर योग्य और कुशल होना अपराध है, जिसे वह क्षमा नहीं कर सकते।
माता–दानू बेचारा भोला है। उनकी बातों में आ गया।
तांगा आ गया। दोनों अमृतराय के घर चलीं। वहां मालूम हुआ कि वे दस मिनट हुए टाउन-हॉल चले गए। प्रेमा अब बड़े असमंजस में पड़ी। टाउन-हॉल में हजारों आदमी जमा होंगे और सब-के-सब छटे हुए शोहदे! वहां जाना तो उचित नहीं, लेकिन शायद अभी जलसा शुरू न हुआ हो और अमृतराय से दो-चार बातें करने का अवसर मिल जाए। ज्यादा सोच-विचार का समय नहीं था; तांगेवाले से बोली–टाउन-हॉल चलो, खूब तेज। तुम्हें एक रूपया इनाम दूंगी।
मगर तांगे का घोड़ा दिन-भर का थका हुआ था, कहां तक दौड़ता? कोचवान बार-बार चाबुक मारता था, पर घोड़ा गरदन हिलाकर रह जाता था। टाउन-हॉल आते-आते बीस मिनट लग गए। दोनों महिलाएं जल्दी से उतरकर हॉल के अन्दर गईं, तो देखा कि अमृतराय मञ्च पर खड़े हैं, और सैकड़ों आदमी नीचे खड़े शोर मचा रहे हैं। महिलाओं के लिए एक बाजू में चिपकें पड़ी हुई थीं। दोनों चिक की आड़ में आ खड़ी हुईं। भीड़ इतनी थी और इतने शोहदे जमा थे कि प्रेमा को मञ्च की ओर जाने का साहस न हुआ।
अमृतराय ने कहा–सज्जन, कृपा करके शांत हो जाइए। मुझे कोई लम्बा व्याख्यान नहीं देना है। मैं केवल दो-चार बातें आपसे निवेदन करके बैठ जाऊंगा...
कई आदमियों ने चिल्लाकर कहा–धर्म का द्रोही है।
अमृत–कौन कहता है, मैं धर्म का द्रोही हूं?
कई आवाजें–और क्या हो तुम? बताओ कौन-कौन से वेद पढ़े हो?
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