उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा ने रहस्यमय भाव से मुसकराकर कहा–क्या यह आज की नई बात है? पुरुष ने सदैव स्त्री की रक्षा की है; फिर रोब क्यों न जमाए?
सुमित्रा–रक्षा की है तो अपने स्वार्थ से; कुछ इसलिए नहीं कि स्त्रियों के प्रति उनके भाव बड़े उदार हैं। अपनी जायदाद के लिए सन्तान की जरूरत न होती, तो कोई स्त्री की बात भी न पूछता। जो स्त्रियां बांझ रह जाती हैं, उनकी कितनी दुर्दशा होती है–रोज ही देखती हो। हां लम्पटों की बात छोड़ो, जो वेश्याओं पर प्राण देते हैं।
पूर्णा–मैं तो ऐसी कई औरतों को जानती हूं, जो पुरूषों ही पर रोब जमाती हैं, यह क्यों?
सुमित्रा–वह निकम्मे पुरुष होंगे।
पूर्णा–नहीं बहन, निकम्मे नहीं। सौ कमाउओं में कमाऊं। एक नहीं, दस-पांच तो अफने मुहल्ले में ही गिनवा दूं। और बाहर कहां जाऊं। मेरे ही मामा थे जो मामीजी की आज्ञा बिना द्वार से टलते न थे। यहां तक कि एक बार कचहरी का सम्मन आया, तो अन्दर जाकर पूछने लगे–अरे सुनती हो, कचहरी का सम्मन आया है, जाएं कि न जाएं?
सुमित्रा–अगर तुम्हारी मामी मनाकर देतीं तो न जाते?
पूर्णा–मैं तो समझती हूं, न जाते। चपरासी जबरदस्ती पकड़ ले जाता।
सुमित्रा–तो तुम्हारी मामी धनी घर की बेटी होंगी।
पूर्णा–कैसा धनी घर? मोल लाई गई थीं–मामा जी की पहली स्त्री मर गई, तो ये उन्हें मोल लाए थे।
सुमित्रा–क्या कहती हो बहन? कहीं औरतें बिकती हैं ?
पूर्णा–औरत और मर्द दोनों ही बिकते हैं। लड़की का बाप कुछ लेकर लड़की ब्याहे और लड़के का बाप कुछ लेकर लड़का ब्याहे। यह बेचना नहीं तो और क्या है? मगर लड़के वालों के लिए लेना कोई नई बात नहीं है। लड़की का बाप यदि कुछ लेकर लड़की दे, तो निन्दा की बात ही है। इसकी प्रथा नहीं है।
सुमित्रा–मजा तो तभी आए जब लड़की वाले भी लड़कियों का दहेज लेने लगें। बिना भरपूर दहेज लिए विवाह ही न करें। तब पुरूषों के होश ठिकाने हो जाए। मेरा तो अगर बाबूजी विवाह न करते, तो मुझे कभी इसका खयाल भी न आता। मेरी समझ यही बात नहीं आती कि लड़की वालों को ही लड़की ब्याहने की इतनी गरज क्यों होती है।
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