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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है

११

पूर्णा प्रातःकाल और दिनों से आध घण्टा पहले उठी। उसने दबे पांव सुमित्रा के कमरे में कदम रखा। वह देखना चाहती थी कि सुमित्रा सोती है या जागती है। शायद वह उसकी सूरत देखकर निश्चय करना चाहती थी कि उसे रात की घटना की कुछ खबर है अथवा नहीं। सुमित्रा चारपाई पर पड़ी कुछ सोच रही थी। पूर्णा को देखकर वह मुस्करा पड़ी। मुस्कराने की क्या बात थी, यह तो वह जाने; पर पूर्णा का कलेजा सन्न से हो गया। चेहरे का रंग उड़ गया। भगवान, कहीं इसने देख तो नहीं लिया?

सुमित्रा ने उठकर उलझे केशों को संभालते हुए कहा–आज इतने सबेरे कैसे जाग गई बहन?

प्रश्न बिलकुल साधारण था; किन्तु पूर्णा को ऐसा जान पड़ा कि यह उस मुख्य विषय की भूमिका है। इतने सबेरे जाग जाना ऐसा लांछन था, जिसे स्वीकार करने में किसी भयंकर बाधा की शंका हुई बोली–क्या बहुत सवेरा है? रोज की बेला तो है।

सुमित्रा–नहीं बहन, आज बहुत सबेरा है। तुम्हें रात भर नींद नहीं आईं क्या? आंखें लाल हो रही हैं।

पूर्णा का कलेजा धक्-धक् करने लगा। यह दूसरा और पहले से भी बड़ा लांछन थी। इसे वह कैसे स्वीकार कर सकती थी? बोली–नहीं बहन, तुम्हें भ्रम हो रहा है। रात बहुत सोई। एक ही नींद में भोर हो गई। बहुत सो जाने से भी आंखें लाल हो जाती हैं।

सुमित्रा ने हंसकर कहा–होती होंगी, मुझे नहीं मालूम था।

पूर्णा ने जोर देकर कहा–वाह! इतनी बात तुम्हें मालूम नहीं। हां; तुम्हें अलबत्ता नींद नहीं आई। क्या सारी रात जागती रहीं?

सुमित्रा–मेरी बला जागे। जिसे हजार बार गरज होगी। आएगा। यहां ऐसी क्या पड़ी है? वह राजी ही रहते थे, तो कौन स्वर्ग मिला जाता था। तब तो और भी जलाते थे। यहां तो भाग्य में रोने के सिवाय और कुछ लिखा ही नहीं।

पूर्णा–तुम तो व्यर्थ का मान किए बैठी हो बहन! एक बार चली क्यों नहीं जातीं?

सुमित्रा के जी में आया की रात की कथा कह सुनाए; पर संकोच ने जबान बन्द कर दी। बोली–यह तो न होगा बहन। चाहे सारा जीवन इसी तरह कट जाए। मेरा कोई अपराध हो, तो मैं जाकर मनाऊं। अन्याय वह करें, मानाने मैं जाऊं–यह नहीं हो सकता।

यह कहते-कहते उसे रात का अपमान याद आ गया। वह घण्टों द्वार पर खड़ी रही थी। वह जागते थे–अवश्य जागते थे, फिर भी किवाड़ न खोले। त्योरियां चढ़ाकर बोली–फिर क्यों मनाने जाऊं मैं किसी का कुछ नहीं जानती। चाहे एक खर्च किया, चाहे सौ; मेरे बाप ने दिए और अब भी देते जाते हैं। इनके घर में पड़ी हूं, इतना गुनाह अलबत्ता किया है। आखिर पुरुष अपनी स्त्री पर क्यों इतना रोब जमाता है? बहन कुछ तुम्हारी समझ में आता है?

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