उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा–नहीं बहन, बैठने का प्रसाद पा गई, अब जाने दो।
पूर्णा इधर अपने कमरे में आकर रोने लगी। उधर सुमित्रा ने हारमोनियम पर गाना शुरू कर दिया–
ऊधौ स्वारथ का संसार
यह गाना था या पूर्णा पर विजय पाने का आह्लाद! पूर्णा को तो यह विजय-गान सा प्रतीत हुआ। एक-एक स्वर उसके हृदय पर एक-एक शेर के समान चोट कर रहा था। क्या अब इस घर में उसका निर्वाह हो सकता है? असम्भव! ना-जाने वह कौन-सी मनहूस घड़ी थी, जब वह इस घर में आई? अपने उस झोंपड़े में रह कर सिलाई या चक्की पीसकर क्या वह जीवन व्यतीत न कर सकती थी? बेचारी बिल्लो अन्त तक उसे समझाती रही, पर भाग्य में तो धक्के खाने लिखे थे, उसकी बात कैसे मानती?
अब पूर्णा का हृदय एक बार कमलाप्रसाद से बातें करने के लिए व्याकुल हो उठा। वह उनके सामने स्पष्ट कह देना चाहती थी कि वह इस घर में नहीं रह सकती। उनके सिवाए और किससे कहे? लाला बदरीप्रसाद हंसकर टाल दें। अम्मां समझेंगी कि यह मेरी बहू की बराबरी कर रही है। अभी से चले जाने में कुशल है। कहीं कोई दूसरा उपद्रव खड़ा हो तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी न रहूं। सुमित्रा चाहे जो लांछन लगा दे, दुनिया उसी की बात मानेगी।
पूर्णा रात ही से एकान्त में रात के समय कमला के पास जाने पर पछता रही थी–उन भले आदमी को भी उस समय चुहल करने की सूझ गई। मगर वह साड़ी मुझ पर खूब खिल रही थी। मुझे वहां जाना ही न चाहिए था, पर एक बार और उनसे मिलना होगा। मैं द्वार पर खड़ी रहूंगी, मुझे आप जाने दीजिए। और कहीं जगह नहीं तो बाबू अमृतराय का विधवाश्रम तो है। दस-पांच विधवाएं वहां रहती भी तो हैं। मैं भी वहीं चली जाऊं, तो क्या हर्ज है? वह समझाएगे तो बहुत, सुमित्रा को डांटने पर भी तैयार हो जाएगे, पर इस डांट-डपट से और भी झमेला बढ़ेगा, इससे तरह-तरह के सन्देह लोगों के मन में पैदा होंगे। अभी-कम-से-कम लोगों को मुझ पर दया आती है, फिर तो कोई बात भी न पूछेगा। विधवा को कुलटा बनते कितनी देर लगती है।
दिन-भर पूर्णा मन मारे बैठी रही। किसी काम में जी न लगता था। इच्छा न रहते हुए भी भोजन करने गई। भय हुआ कि कहीं सुमित्रा आकर जली-कटी न सुनाने लगे। जैसे-तैसे किसी तरह दिन कटा रात आई! सुमित्रा ने सरेशाम ही से किवाड़ बन्द कर लिए। भोजन करने के बाद अच्छी तरह सोता पड़ गया तो पूर्णा ने दबे पांव कमला के द्वार पर आकर धीरे-से पुकारा। कमला अभी-अभी सिनेमा से लौटा था! लपककर किवाड़ खोल दिया और बोला–आओ–पूर्णा, तुम्हें देखने के लिए जी व्याकुल हो रहा था।
पूर्णा ने द्वार पर खड़े-खड़े कहा–मेरे वहां आने का कोई काम नहीं है। मैं केवल आपसे विदा मांगने आई हूं। इस घर में मेरा निर्वाह नहीं हो सकता। आखिर मैं भी तो आदमी हूं। कहां तक सबका मुंह ताकूं और किस-किस की खुशामद करूं?
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