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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


पूर्णा ने सिसकते हुए कहा–बाबूजी, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, मुझे जाने दो। मेरा जी न-जाने क्यों घबरा रहा है।

कमला ने सिर ठोंककर कहा–हाय, फिर वही बात। अच्छी बात है। जाओ, एक बार भी बैठने को न कहूंगा।

पूर्णा ज्यों-की-त्यों बैठी रही। उसे किसी भीषण परिणाम की शंका हो रही थी।

कमला ने कहा–अब जाती क्यों नहीं हो? मैंने तुम्हें बांध तो नहीं लिया है!

पूर्णा ने कमला की ओर कातर नेत्रों से देखा और सिर झुकाकर कहा–वायदा करते हो कि अपने प्राण की रक्षा करते रहोगे?

कमला ने उदासीन भाव से कहा–तुम्हें मेरे प्राणों की रक्षा की क्या परवाह! जिस तरह तुम्हारे ऊपर मेरा कुछ जोर नहीं है, उसी तरह मेरे ऊपर भी तुम्हारा कोई जोर नहीं है। या तुम्हें भूल ही जाऊंगा, या प्राणों का अन्त की करूंगा; मगर इससे तुम्हारा क्या बनता-बिगड़ता है। जी में आए, जरा सो शोक कर लेना; नहीं वह भी न करना। मैं तुमसे गिला करने न आऊंगा।

पूर्णा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा–तो इस तरह तो मैं न जाऊंगी।

कमला०–इसका यह आशय हुआ कि तुम मुझे जीने न दोगी, न मरने। तुम्हारी इच्छा है कि सदैव तड़पता रहूं। यह दशा मुझसे नहीं सही जाएगी। तुम जाकर आराम ले लेटो और मेरी चिन्ता छोड़ दो। मगर नहीं, यह मेरी भूल है, जो मैं समझ रहा हूं कि तुम मेरे प्राणों की चिन्ता से मुझसे यह वायदा करा रही हो। यह केवल भिखारी को मीठे शब्दों में जवाब देने का ढंग है। हां, वायदा करता हूं कि अपने प्राणों की रक्षा करता रहूंगा, उसी तरह जैसे तुम मेरे प्राणों की रक्षा करती हो!

‘यह वायदा मैं नहीं मानती। सच्चा वायदा करो।’

‘तो प्रिये, यह गांठ बांध लो कि कमलाप्रसाद विरह-वेदना सहने के लिए जीवित नहीं रह सकता।’

पूर्णा ने करुण स्वर में कहा–बाबू जी, तुमने मुझे संकट में फंसा दिया तुम मुझे मायाजाल में फंसाकर मेरा सर्वनाश करने पर तुले हो। मेरा कर्तव्य ज्ञान नष्ट हुआ जाता है। तुमने मुझ पर मोहनी मंत्र डाल दिया है...।

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