उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा का निष्कपट हृदय इस प्रेम-दर्शन से घोर असमंजस में पड़ गया। उसका एक हाथ किवाड़ की चटखनी पर था। वह आप-ही-आप चटखनी के पास से हट गया। वह स्वयं एक कदम आगे बढ़ आई। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी हो गई, जिसने अनजाने में किसी बालक का पैर कुचल दिया हो। और जो उसे वेदना से छटपटाते देख, जल्दी से दौड़कर उसे गोद में उठा ले। कमलाप्रसाद जिस दिन साड़ी लाए थे, उसी दिन से पूर्णा को कुछ शंका हो गयी थी; पर उसने इसे पुरुषों का विनोद समझ लिया था। अतएव इस समय यह प्रेमलाप सुनकर भयभीत हो गई। घबड़ायी हुई आवाज से बोली–मैं सचमुच मरने थोड़ी ही जी रही हूं। कहीं-न-कहीं तो रहूंगी। कभी-कभी आती रहूंगी। मगर इस समय मुझे जाने दो। मेरी बदनामी से क्या तुम्हें दुःख न होगा?
कमला०–पूर्णा, नेकनामी और बदनामी सब ढकोसला है। प्रेम ईश्वर की प्रेरणा है, उसको स्वीकार करना पाप नहीं, उसका अनादर करना पाप है। मुझे ईश्वर ने धन दिया है, एक-एक रूपवती स्त्रियों को नित्य देखता हूं। धन के बल से जिसे चाहूं अपनी वासना का शिकार बना सकता हूं; पर आज तक कसम ले लो जो किसी की ओर आंख उठाकर भी देखा हो; पर उसे कभी मैंने प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। मगर तुम्हें देखते ही मुझे ऐसा मालूम हुआ, मानो मेरी आंखों के सामने से परदा हट गया। ऐसा जान पड़ा, मानो तुम मेरे हृदय-मन्दिर में बहुत दिनों से बैठी हो। मगर मैं अज्ञान के कारण इस वेदना का रहस्य न समझ सकता था। बस, जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाए। अब कितना चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं, मन को दूसरी ओर फेरना चाहता हूं; पर कोई बस नहीं चलता। यही समझ लो कि मेरा जीवन तुम्हारी दया पर है।
यह कहते-कहते कमला का गला भर आया। उसने रूमाल निकालकर आंखें पोंछी, मानो उनमें आंसू छलक रहे हों।
पूर्णा पाषाण-प्रतिमा की भांति निस्पन्द खड़ी थी। उसकी सारी बुद्धि, सारी चेतना, सारी आत्मा मानो उमड़ती हुई लहरों में बही जा रही हो; और कोई उसकी आर्त्त ध्वनि पर कान न देता हो। मनुष्य, पशु-पक्षी, तट के वृक्ष और बस्तियां सब भागी जाती हों–उससे–दूर कोसों दूर! वह खड़ी न रह सकी। भूमि पर बैठकर उसने एक ठण्डी सांस ली और फूट-फूटकर रोने लगी।
कमला ने समीप आकर उसका हाथ पकड़ लिया और गला साफ करके बोला–पूर्णा, तुम जिस संकट में हो, मैं उसे जानता हूं, लेकिन सोचो, एक जीवन का मूल्य क्या एक पूर्व-स्मृति के बराबर भी नहीं? मैं तुम्हारी पतिभक्ति के आदर्श को समझता हूं। अपने स्वामी से तुम्हें कितना प्रेम था, यह देख चुका हूं। उन्हें तुमसे कितना प्रेम था, यह भी देख चुका हूं। अक्सर पार्क में हरी-भरी घास पर लेटे हुए वह घण्टों तुम्हारी कीर्ति-गान किया करते थे। मैं सुन-सुनकर उनके भाग्य को सराहता था और इच्छा होती थी कि तुम्हें एक बार पा जाता तो तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर रोता। सुमित्रा से दिन-दिन घृणा होती जाती थी। यह उन्हीं का बोया हुआ बीज है, जो फूलने और फलने के लिए विकल हो रहा है।
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