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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


बड़ी बुद्धिमत्ती हो, तो इसका मतलब समझो?’

क्या विवाह भी कई तरह के होते हैं! हमने तो एक ही तरह का विवाह सब जगह देखा है।

कमला ने विवाह के सात भेद बताए। किस समय कौन प्रथा प्रचलित थी, उसके बाद कौन-सी प्रथा चली, और वर्तमान समय में किन-किन प्रथाओं का रिवाज है, यह सारी कथा बहुत ही बेसिर-पैर की बातों के साथ-कुतूहल मग्न पूर्णा से कह सुनाई। स्मृतियों का धुरन्धर ज्ञाता इतने सन्देह रहित भाव से इस विषय की चर्चा न कर सकता।

पूर्णा ने पूछा–तो गन्धर्व विवाह अभी तक होता है?

‘हां, यूरोप में इसका बहुत रीति रिवाज है। मुसलमानों में भी है। इस देश में भी पहले थे, पर अब एक कानून के अनुसार फिर इसका रिवाज हो रहा है।’

‘इस विवाह में क्या होता है?’

‘कुछ नहीं, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को वचन देते हैं, बस विवाह हो जाता है। माता-पिता, भाई-बन्धु, पण्डित-पुरोहित किसी का काम नहीं। हां, वर और कन्या दोनों ही का बालिग हो जाना जरूरी है।’

पूर्णा ने अविश्वास के भाव से कहा–विवाह क्या लड़कों का खेल है?

कमला ने प्रतिवाद किया–मेरी समझ में तो जिसे तुम विवाह समझ रही हो, वही लड़कों का खेल है! ढोल-मजीरा बाजा, आतिशबाजियां छूटीं और दो अबोध बालक, जो विवाह का मर्म तक नहीं समझते, एक-दूसरे के गले जीवन पर्यन्त के लिए मढ़ दिये गए। सच पूछो तो यही लड़कों का खेल है।

पूर्णा ने फिर शंका की–दुनिया तो इस विवाह को मानती नहीं।

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