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उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


कमलाप्रसाद ने उत्तेजित होकर कहा–दुनिया अन्धी है, उसके सारे व्यापार उल्टे हैं। मैं ऐसी दुनिया की परवाह नहीं करता। मनुष्य को ईश्वर ने इसलिए बनाया है कि वह रो-रोकर जिन्दगी के दिन काटे, केवल इसलिए कि दुनिया ऐसा चाहती है? साधारण कामों में जब हमसे कोई भूल हो जाती है, तो हम उसे तुरन्त सुधारते हैं। तब जीवन को हम क्यों एक भूल के पीछे नष्ट कर दें। अगर आज किसी दैवी बाधा से यह मकान गिर पड़े, तो हम कल ही इसे बनाना शुरु कर देंगे; मगर जब किसी अबला के जीवन पर दैवी आघात हो जाता है, तो उससे आशा की जाती है कि वह सदैव उसके नाम को रोती रहे। यह कितना बड़ा अन्याय है। पुरुषों ने यह विधान, केवल अपनी काम-वासना को तृप्त करने के लिए किया है। बस, इसका और कोई अर्थ नहीं। जिसने यह व्यवस्था की, वह चाहे देवता हो या ऋषि अथवा महात्मा, मैं उसे मानव समाज का सबसे बड़ा शत्रु समझता हूं, स्त्रियों के लिए पतिव्रत-धर्म की पख लगा दी। पुनः संस्कार होता, तो इतनी अनाथ स्त्रियां उसके पंजे में कैसे फंसती। बस, यही सारा रहस्य है। न्याय तो हम तब समझते हैं, जब पुरुषों को भी यही निषेध होता।

पूर्णा बोली–स्मृतियां पुरुषों की बनाई तो होंगी ही?

‘और क्या? धूर्तों का पाखण्ड है।’

‘अच्छा, तब तुम बाबू अमृतराय को क्यों बदनाम करते हो?’

‘केवल इसलिए कि उनका चरित्र अच्छा नहीं। वह विवाह बन्धन में न पड़ कर छूटे सांड़ बने रहना चाहते हैं। उनका विधवाश्रम केवल उनका भोगालय होगा, इसीलिए हम उनका विरोध कर रहे हैं। यदि वह विधवा से विवाह करना चाहते हैं, तो देश में विधवाओं की कमी है? पर वह विवाह न करेंगे। बाजे आदमियों को टट्टी की आड़ से शिकार खेलने में ही मजा आता है; मगर ईश्वर ने चाहा तो उनका आश्रम बनकर तैयार न हो सकेगा। सारे शहर में उन्हें कौड़ी-भर की मदद न मिलेगी। (घड़ी की ओर देखकर) अरे! दो बज रहे हैं अब विलम्ब न करना चाहिए। आओ, उस दीपक के सामने ईश्वर को साक्षी करके हम शपथ खाएं कि जीवन-पर्यन्त हम पति पत्नी का व्रत का पालन करेंगे।

पूर्णा का मुख विवर्ण हो गया। वह उठ खड़ी हुई और बोली–अभी नहीं बाबूजी! साल भर नहीं। तब तक सोच लो। मैं भी सोच लूं। जल्दी क्या है?

यह कहती हूई वह किवाड़ खोलकर तेजी से बाहर निकल गई; और कमलाप्रसाद खड़े ताकते रह गए, चिड़िया दाना चुगते-चुगते समीप आ गई थी; पर ज्योंही शिकारी ने हाथ चलाया, फुर्र-से उड़ गई; मगर क्या वह सदैव शिकारी के प्रलोभनों से बचती रहेगी।

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