उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
सुमित्रा ने फिर कहा–तुमने जब पहले-पहल इस घर में कदम रखे थे, तभी मैं खटकी थी। मुझे उसी वक्त यह संशय हुआ कि तुम्हारा यौवन और उस पर सरस स्वभाव मेरे लिए घातक होगा; इसीलिए मैंने तुम्हें अपने साथ रखना शुरू किया था। लेकिन होनहार को कौन टाल सकता था? मैं जानती हूं, तुम्हारा हृदय निष्कपट है। अगर तुम्हें कोई न छेड़ता तो तुम जीवन-पर्यन्त अपने व्रत पर स्थिर रहतीं। लेकिन पानी में रहकर हलकोरों से बचे रहना तुम्हारी शक्ति के बाहर था। बे-लंगर की नाव लहरों में स्थिर नहीं रह सकती। पड़े हुए धन को उठा लेने में किसे संकोच होता है? मैंने अपनी आंखों से सब कुछ देख लिया है पूर्णा। तुम दुलक नहीं सकतीं। मैं जो कुछ कह रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हूं। अब भी अगर बच सकती हो तो उस कुकर्मी का साया भी अपने ऊपर न पड़ने दो। यह न समझो कि मैं अपने लिए, अपने पहलू का कांटा निकालने के लिए तुमसे ये बातें कर रही हूं। मैं जैसी तब थी वैसी ही अब भी हूं। मेरे लिए ‘जैसे कन्ता घर रहे वैसे रहे विदेश।’ मुझे तुम्हारी चिन्ता है। यह पिशाच तुम्हें कहीं का न रखेगा। मैं तुम्हें एक सलाह देती हूं। कहो कहूं, या न कहूं?
पूर्णा ने मुंह से कोई उत्तर न दिया; केवल एक बार ग्लानिमनय नेत्रों से देखकर सिर झुका लिया।
सुमित्रा बोली–उससे तुम साफ-साफ कह दो कि वह तुमसे विवाह कर ले।
पूर्णा ने विस्फारित नेत्रों से देखा।
सुमित्रा–विवाह में केवल एक ही जग-हंसाई है फिर कोई कुछ न कह सकेगा। इस भांति लुक-छिपकर मिलना तो आत्मा और परलोक दोनों ही का सर्वनाश कर देगा। उनके प्रेम की परीक्षा भी हो जाएगी। अगर वह विवाह करने पर राजी हो जाए तो समझ लेना कि उसे तुमसे सच्चा प्रेम है। नहीं तो समझ लेना-उसने काम-वासना की धुन में तुम्हारी आबरू बिगाड़ने का निश्चय किया है। अगर वह इन्कार करे, तो उससे फिर न बोलना, न उसकी सूरत देखना। मैं कहो तो लिख दूं कि वह विवाह करने पर कभी राजी न होगा। वह तुम्हें खूब सब्जबाग दिखाएगा, तरह-तरह के बहाने करेगा; मगर खबरदार उसकी बातों में न आना; पक्का जालिया है! रही मैं! मैंने तो मन में ठान लिया है कि लाला के मुख में कालिख पोत दूंगी। बला से मेरी आबरू जाए–बला से मेरा सर्वनाश हो जाए; मगर इन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक न रखूंगी।
पूर्णा ने आंखों में आंसू भरे हुए कहा–मैं ही क्यों न मुंह में कालिख लगाकर कहीं डूब मरूं, बहन!
सुमित्रा–तुम्हारे डूब मरने से मेरा क्या उपकार होगा? न वह अपना स्वभाव छोड़ सकते हैं, न मैं अपना स्वभाव छोड़ सकती हूं। न वह पैसों को दांत से पकड़ना छोड़ेंगे और न मैं पैसों को तुच्छ समझना छोड़ूंगी। उन्हें छिछोरेपन से प्रेम है, अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का खब्त। मुझे इन बातों से घृणा है। अब तक मैंने उन्हें इतना छिछोरा न समझा था समझती थी वह प्रेम कर सकते हैं। स्वयं उनसे प्रेम करने की चेष्टा करती थी; पर रात जो कुछ देखा, उसने उनकी रही सही बात भी मिटा दी। और सारी बुराइयां सह सकती हूं; किन्तु लम्पटता को सहन करना मेरी शक्ति के बाहर है। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूं पूर्णा, तुम्हारी ओर से कोई शिकायत नहीं। तुम्हारी तरफ से मेरा दिल बिल्कुल साफ है। बल्कि मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है। मैंने यदि क्रोध में कठोर बात कह दी हो, तो क्षमा करना। जलते हुए हृदय में धुएं के सिवा और क्या निकल सकता है?
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