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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है

१२

पूर्णा कितना ही चाहती थी कि कमलाप्रसाद की ओर से अपना मन हटा ले, पर वह शंका उसके हृदय में समा गई थी कि कहीं सचमुच इन्होंने आत्महत्या कर ली तो क्या होगा? रात को वह कमलाप्रसाद की उपेक्षा करके चली तो आई थी; पर शेष रात उसने चिन्ता से काटी। उनका विचलित हृदय पति-भक्ति, संयम और व्रत के विरुद्ध भांति-भांति की तर्कनाएं करने लगा। क्या वह मर जाती, तो उसके पति पुनर्विवाह न करते? अभी उनकी अवस्था ही क्या थी? पच्चीस वर्ष की अवस्था में क्या वह विधुर जीवन का पालन करते? कदापि नहीं। अब उसे याद ही न आता था कि पण्डित वसन्तकुमार ने उसके साथ कभी इतना अनुरक्त प्रेम किया था। उन्हें इतना अवकाश ही कहां था। सारे दिन तो दफ्तर में बैठे रहते थे। फिर उन्होंने उसे सुख ही क्या पहुंचाया? एक-एक पैसे की तंगी रहती थी, सुख क्या पहुंचाते। उनके साथ भी रो-रोकर ही जिन्दगी कटती थी। क्या रो-रोकर प्राण देने के लिए उसका जन्म हुआ है? स्वर्ग और नरक सब ढकोसला है। अब इससे दुःखदायी नरक क्या होगा? जब नरक में ही रहना है, तो नरक ही सही कम-से–कम जीवन में कुछ दिन आनन्द से कटेंगे! जीवन का कुछ सुख तो मिलेगा। जिससे प्रेम हो, वही अपना सब कुछ। विवाह और संस्कार सब दिखावा है? चार अक्षर संस्कृत पढ़ लेने से क्या होता है? मतलब तो यही है न किसी प्रकार स्त्री का पालन-पोषण हो। उंह, इस चिन्ता में क्यों कोई मरे? विवाह क्या स्त्री को पुरूष से बांध देता है? वह भी मन मिले ही का सौदा है। स्त्री और पुरुष का मन न मिला तो विवाह क्या मिला देगा? विवाह होने पर भी तो पुरुष की जब इच्छा होती है स्त्री को छोड़ देता है। बिना विवाह हुए-स्त्री पुरुष आजीवन प्रेम से रहते हैं। कुत्सित भावनाओं में पूर्णा ने भोर कर दिया।

प्रातः काल वह बालों में कंघी कर रही थी कि सुमित्रा आकर खड़ी हो गई। पूर्णा ने मृदुभाव से कहा–बैठो बहन, आज तो बड़े सबेरे नींद खुल गई!

पूर्णा–न जाने किस तबीयत के आदमी हैं।

सुमित्रा–क्या तुमने अभी तक उनकी थाह नहीं पाई! तुम तो इन बातों में चतुर हो।

पूर्णा ने आशंकित नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा–मैं यह विद्या नहीं पढ़ी हूं।

सुमित्रा–पहले मैं भी ऐसा ही समझती थी पर अब मालूम हुआ कि मुझे धोखा हुआ था।

पूर्णा ने क्रोध का भाव धारण करे कहा–तुम तो बहन आज लड़ने आई हो।

सुमित्रा–हां, आज लड़ने ही आई हूं। हम दोनों अब इस घर में नहीं रह सकतीं।

पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया। ऐसा जान पड़ा, मानो पृथ्वी ने अपने सारे बोझ से दबा दिया है।

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