उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
सहसा कमलाप्रसाद हाथ में एक पत्र लिए हुए आया; पर द्वार के अन्दर कदम रखते ही सुमित्रा को देखा, तो कुछ झिझकते हुए बोला–पूर्णा, प्रेमा ने तुम्हें बुलाया है, मैंने गाड़ी जोतने को कह दिया है, चलो तुम्हें पहुंचा दूं। पूर्णा ने सुमित्रा की ओर देखा, मानो पूछ रही हो कि तुम्हारी क्या राय है। पर सुमित्रा दीवार की ओर ताक रही थी, मानो उसे पूर्णा से कोई सरोकार ही नहीं।
पूर्णा ने हिचकते हुए कहा–आप जाएं, मैं किसी वक्त चली जाऊंगी।
कमला०–नहीं, शायद कोई जरूरी काम है। उसने अभी बुलाया है।
पूर्णा ने फिर सुमित्रा की ओर देखा, पर सुमित्रा अभी तक दीवार की ओर ताक रही थी। ‘न’ ‘हां’ कहते बनता न था ‘नहीं’। प्रेमा से वह इधर महीने से न मिल सकी थी। उससे मिलने के लिए चित्त लालायित हो रहा था। न जाने क्यों बुलाया है? इतनी जल्दी बुलाया है, तो अवश्य ही कोई जरूरी काम होगा। रास्ते भर की बात है, इनके साथ जाने में हरज ही क्या है? वहां दो-चार दिन रहने से दिल बदल जाएगा। इन महाशय से पिण्ड छूट जाएगा। यह सोचकर उसने कहा–आप क्यों कष्ट कीजिएगा मैं अकेली चली जाऊंगी।
कमला ने झुंझलाकर उत्तर दिया–अच्छी बात है, जब इच्छा हो चली जाना, मैं तो इसी वक्त जा रहा हूं। दान बाबू से कुछ बातें करना है। मैंने तुम्हारे आराम के ख्याल से कहा था कि इसी गाड़ी पर तुम्हें भी लेता चलता।
पूर्णा अब कोई आपत्ति न कर सकी। बोली–तो कब जाइएगा?
कमला ने द्वार के बाहर कदम रखते हुए कहा–मैं तैयार हूं।
पूर्णा भी चटपट तैयार हो गई। कमला चला तो उसने सुमित्रा से कहा–इनके साथ जाने में क्या हरज है?
सुमित्रा ने आश्वासन देते हुए कहा–साथ जाने में बड़ा हरज है, मगर देखो मुझे भूल न जाना, जल्दी ही आना।
यह वाक्य सुमित्रा ने केवल शिष्टाचार के भाव से कहा। दिल में वह पूर्णा के जाने से प्रसन्न थी। पूर्णा का मन कमलाप्रसाद की ओर से फेर देने के बाद अब उसके लिए इससे बढ़कर और कौन-सी बात हो सकती थी कि उन दोनों में कुछ दिनों के लिए विच्छेद हो जाए। पूर्णा अब यहां आने के लिए उत्सुक न होगी, और प्रेमा खुद उससे जाने को क्यों कहने लगी? उसके यहां रहना स्वीकार कर ले तो उसे मुंहमांगी मुराद मिल जाए। सुमित्रा को पूर्णा के चले जाने ही में अपना उद्धार दिखाई दिया।
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