उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
लेकिन जब पूर्णा तांगे पर बैठी और देखा कि घोड़े की रास किसी कोचवान के हाथ में नहीं, कमलाप्रसाद के हाथ में है, तो उसका हृदय अज्ञात शंका से दहल उठा। एक बार जी में आया कि तांगे से उतर पड़े, पर इसके लिए कोई बहाना न सूझा, वह इसी दुविधा में पड़ी हुई थी कि कमला ने घोड़े को चाबुक लगाई। तांगा चल पड़ा।
कुछ दूर तक तांगा परिचित मार्ग से चला। वही मन्दिर थे, वही दूकानें थीं। पूर्णा की शंका दूर होने लगी, लेकिन एक मोड़ पर तांगे को घूमते देखकर पूर्णा को ऐसा आभास हुआ कि सीधा रास्ता छूटा जा रहा है। उसने कमला से पूछा–इधर से कहां चल रहे हो?
कमला ने निश्चित भाव से कहा–उधर फेर था। इस रास्ते से जल्द पहुंचेंगे। पूर्णा चुप हो गई। कई मिनट तक गली में चलने के बाद तांगा चौड़ी सड़क पर पहुंचा इसके बाद उसने रेलवे-लाइन पार की। अब अबादी बहुत कम हो गई थी। केवल दूर-दूर पर अंग्रेजों के बंगले बने हुए थे।
पूर्णा ने घबराकर पूछा–यह तुम मूझे कहां लिए चलते हो?
‘जरा अपने बगीचे तक चल रहा हूं। कुछ देर वहां बाग की सैर करके तब प्रेमा के घर चलेंगे।’
‘तुमने बगीचे का तो जिक्र भी नहीं किया था, नहीं तो मैं कभी नहीं आती।
‘अरे दस मिनट के लिए यहीं रुक जाओगी, तो ऐसा कौन अनर्थ हो जाएगा?
‘तांगा लौटा दो, नहीं, मैं कूद पड़ूंगी।’
‘कूद पड़ोगी तो हाथ पैर टूट जाएंगे, मेरा क्या बिगड़ेगा?’
पूर्णा ने सशंक नेत्रों से कमला को देखा। वह उसे इस निर्जन स्थान में क्यों ले आया है? क्या उसने मन में कुछ और ठानी है नहीं, वह इतना नीच, इतना अधम नहीं हो सकता और बंगले पर दस-पांच मिनट रुक जाने ही में क्या बिगड़ जाएगा? आखिर वहां भी तो नौकर-चाकर होंगे।
जरा देर में बगीचा आ पहुंचा। कमला ने तांगे से उतरकर फाटक खोला। उसे देखते ही दो माली दौड़े हुए आए। एक ने घोड़े की रास पकड़ी दूसरे ने कमला का हैंडबैग उठा लिया। कमला ने पूर्णा को आहिस्ते से तांगे पर से उतारा और उसे भीतर के सजे हुए बंगले में लेकर जाकर बोला–यह जगह तो ऐसी बुरी नहीं है कि यहां घण्टे-दो-घण्टे ठहरा न जा सके।
पूर्णा ने कौशल से आत्म-रक्षा करने की ठानी थी। बोली-प्रेमा राह देख रही होगी। इसी से जल्दी कर रही थी।
कमला०–अजी बातें न बनाओ, मैं सब समझता हूं। तुम मुझे ऐसा दुरात्मा समझती हो, इसका मुझे गुमान भी न था। वह देवी, जिसके एक इशारे पर मैं अपने प्राणों का विसर्जन करने को तैयार हूं, मुझे इतना नीच और भ्रष्ट समझती हैं, यह मेरे लिए डूब मरने की बात है।
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