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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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मुंशी प्रेमचन्द की चार प्रसिद्ध कहानियाँ


रात के दस बज गये। कुँवर साहब पलंग पर लेटे थे। बैंक के अहाते का दृश्य आँखों के सामने नाच रहा था। वही विलाप-ध्वनि कानों में आ रही थी। चित्त में प्रश्न हो रहा था, क्या इस विडम्बना का कारण मैं हूँ। मैंने तो वही किया, जिसका मुझे कानूनन अधिकार था। यह बैंक के संचालकों की भूल है, जो उन्होंने बिना जमानत के इतनी बड़ी रकम कर्ज दे दी, लेनदारों को उन्हीं की गरदन नापनी चाहिए। मैं कोई खुदाई फौजदार नहीं हूँ, कि दूसरों की नादानी का फल भोगूँ। फिर विचार पलटा, मैं नाहक इस होटल में ठहरा। चालीस रुपये प्रतिदिन देने पड़ेंगे। कोई चार सौ रुपये के मत्थे जायेगी। इतना सामान भी व्यर्थ ही लिया। क्या आवश्यकता थी? मखमली गद्दे की कुर्सियों या शीशे की सजावट से मेरा गौरव नहीं बढ़ सकता। कोई साधारण मकान पाँच रुपये किराये पर ले लेता, तो क्या काम न चलता! मैं और साथ के सब आदमी आराम से रहते। यही न होता, लोग निंदा करते। इसकी क्या चिंता? जिन लोगों के मत्थे यह ठाट कर रहा हूँ वे गरीब तो रोटियों को तरसते हैं। ये ही दस-बारह हजार रुपये लगा कर कुएँ बनवा देता, तो सहस्रों दीनों का भला होता। अब फिर लोगों के चकमे में न जाऊँगा। यह मोटर-कार व्यर्थ है। मेरा समय इतना महँगा नही है कि घंटे-आध-घंटे की किफायत के लिए दो सौ रुपये का खर्च बढ़ा लूँ। फाका करने वाले असामियों के सामने दौड़ना, उनकी छातियों पर मूँग दलना है। माना कि वे रोब में आ जायेंगे, जिधर से निकल जाऊँगा, सैकड़ों स्त्रियों और बच्चे देखने के लिए खड़े हो जायेंगे। मगर केवल इतने ही दिखावे के लिए इतना खर्च बढ़ाना मूर्खता है।

यदि दूसरे रईस ऐसा करते हैं तो करें, मैं उनकी बराबरी क्यों करूँ। अब तक दो हजार रुपये सालाने में मेरा निर्वाह हो जाता था। अब दो के बदले चार हजार बहुत हैं। फिर मुझे दूसरों की कमाई को इस प्रकार उड़ाने का अधिकार ही क्या है? मैं कोई उद्योग-धंधा, कोई कारोबार नहीं करता, जिसका यह नफा हो। यदि मेरे पुरखों ने हठधर्मी, और जबरदस्ती से इलाका अपने वश में कर लिया, तो मुझे उनके लूट के धन में शरीक होने का क्या अधिकार है? जो लोग परिश्रम करते हैं, उन्हें अपने परिश्रम का पूरा फल मिलना चाहिए। राज्य उन्हें केवल दूसरों के कठोर हाथों से बचाता है। इस सेवा का उसे उचित मुआवजा मिलना चाहिए। बस, मैं तो राज्य की ओर से मुआवजा वसूल करने के लिए नियत हूँ। इसके अतिरिक्त इन गरीबों की कमाई में मेरा और कोई भाग नहीं। यह बेचारे दीन हैं, मूर्ख हैं, बेजवान हैं, इस समय हम इन्हें चाहे जितना सता लें। इन्हें अपने स्वत्व का ज्ञान नहीं है। अपने महत्व को नहीं समझते, पर एक समय अवश्य आयेगा जब इनके मुँह में भी जबान होगी, इन्हें भी अपने अधिकारों का ज्ञान होगा। तब हमारी दशा भी बुरी होगी। ये भोग-विलास मुझे अपने आसामियों से दूर किये देते हैं। मेरी भलाई इसी में है कि इन्हीं में रहूँ, इन्हीं की भाँति जीवन निर्वाह करूँ और इनकी सहायता करूँ।

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