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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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हाँ, तो इस बैंक का क्या करूँ? कोई छोटी-मोटी बात होती, तो जिस तरह सिर पर बहुत भार हैं उसी प्रकार इसे भी ले लेता, पर असल और सूद के सिवा महाजनों के भी तीन लाख रुपया सालाना है, अधिक नहीं। मैं इतना बड़ा साहस करूँ तो किस बिरते पर? हाँ, यदि बैरागी हो जाऊँ तो सम्भव है, कि मेरे जीवन में–यदि कहीं अचानक मृत्यु न हो जाय तो, यह झगड़ा पाक हो पाय। इस अग्नि में कूदना अपने सम्पूर्ण जीवन, अपनी उमंगों और अपनी आशाओं को भस्म करना है। आह! इन दिनों की प्रतीक्षा में मैंने क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे। पिता जी ने इस चिंता में प्राण-त्याग किये। यह शुभ मुहूर्त हमारी अँधेरी रात के लिए दूर का दीपक था। हम इसी के आसरे जीवित थे। सोते-जागते सदैव इसी की चर्चा रहती थी। इससे चित्त को कितना संतोष और कितना अभिमान था। उपवास के दिन भी हमारे तेवर मैले न होते थे। जब इतने धैर्य और संतोष के बाद अच्छे दिन आये तो उससे कैसे विमुख हुआ जाय? फिर अपनी ही चिन्ता तो नहीं, रियासत की उन्नति की कितनी ही स्कीमें सोच चुका हूँ; क्या अपनी इच्छाओं के साथ उन विचारों को भी त्याग दूँ? इस अभागी रानी ने मुझे बुरी तरह फँसाया। जब तक जीती रही, कभी चैन से न बैठने दिया। मरी तो मेरे सिर पर यह बला डाल गयी।

परन्तु मैं दरिद्रता से इतना डरता क्यों हूँ? दरिद्रता कोई पाप नहीं है। यदि मेरा त्याग हजारों घरानों को कष्ट और दुरावस्था से बचाये तो मुझे उससे मुँह न मोड़ना चाहिए। केवल सुख से जीवन व्यतीत करना ही हमारा ध्येय नहीं है। हमारी मान-प्रतिष्ठा और कीर्ति सुख-भोग ही से ही नहीं हुआ करती! राज-मंदिरों में रहने वालों और विलास में रत राणा प्रताप को कौन जानता है? यह उनका आत्मा-समर्पण और कठिन व्रतपालन ही है, जिसने उन्हें हमारी जाति का सूर्य बना दिया है। श्रीरामचंद्र ने यदि अपना जीवन सुख-भोग में बिताया होता तो आज हम उनका नाम भी न जानते। उनके आत्म- बलिदान ने ही उन्हें अमर बना दिया है। हमारी प्रतिष्ठा, धन और विलास पर अवलम्बित नहीं है। मैं मोटर पर सवार हुआ तो क्या, और टट्टू पर चढ़ा तो क्या, होटल में ठहरा तो क्या और किसी मामूली घर ठहरा तो क्या। बहुत होगा ताल्लुकदार लोग मेरी हँसी उड़ावेंगे। इसकी परवा नहीं। मैं तो हृदय से चाहता हूँ कि उन लोगों से अलग रहूँ। यदि इतनी ही निन्दा से सैकड़ों परिवार का भला हो जाय; तो क्या मैं मनुष्य नहीं, जो प्रसन्नता से उसे सहन न करूँ।

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